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________________ बचने का दरिद्रता...! ११ के द्वारा आप जितना पुण्योपार्जन करते हैं, उससे अधिक कटु एवं भयंकर शब्दों का प्रयोग करके पापों की पोटली बांध लेते हैं । • क्या इसकी बजाय यह अच्छा नहीं है कि आप धर्मक्रियाएं वही करें जो दिखाने के लिये न हों और दान ऐसा दें जिसके पीछे दान-दाताओं की फेहरिस्त में नाम लिखवाने की आकांक्षा न हो, पर अन्य प्रत्येक प्राणी के प्रति आपका व्यवहार कोमल, सदय एवं हितकर हो । आपके वचनों से कभी किसी का दिल न दुखे, उलटे उसे शांति और सान्त्वना मिले ? ऐसे वचन और ऐसी भाषा आपकी आत्मा के लिये अधिक लाभदायक साबित होगी । में कितने आश्चर्य की बात है कि मनुष्य की यह छोटी-सी जीभ उसके लिये भयंकर अनर्थ का कारण भी बन सकती है और महान् लाभ का कारण भी यही बनती है । आवश्यकता है केवल इसके सदुपयोग की । अगर व्यक्ति इसको काबू रखे तो यह संवर में सहायक बनेगी और बेकाबू कर दिया तो आश्रव का कार्य करेगी । वचनगुप्ति का महत्व श्रावक एवं साधु दोनों के लिये है कि श्रावक मुनि के समान इसपर पूर्णतया कण्ट्रोल नहीं रख अगर वह चाहे तो इसके द्वारा संसार में सम्मान और कीर्ति का भागी तो बनता ही है, साथ ही शुभ कर्मों का संचय करके अगले जन्मों के लिये भी लाभ उठा सकता है। बराबर है । यह सही सकता, किन्तु फिर भी मुनियों के लिये तो पूज्यपाद श्री अमीऋषि जी महाराज ने बताया है कि वे किस प्रकार अपनी वचनगुप्ति को वश में रखते हैं और सच्चे गुरु एवं पथ-प्रदर्शक बनकर हमारे आत्मोत्थान में सहायक बनते हैं । उन्होंने कहा है मौन करी रहे, नाही आश्रव के वेण कहे, संवर के काज मृदु वचन उच्चारे हैं । बोलत है प्रथम विचारी निज हिये मांही, जीव दया युत उपदेश विसतारे हैं ।। आगम के वेण ऐन माने सुखदेन पेन, माने मिथ्या केन चित्त ऐसी विध धारे हैं । कहे अमीरिख मुनि ऐसे मौनधारी होय, तारण तरण सोही सुगुरु हमारे हैं !! क्या कहा है ? यही कि सच्चे संत अधिक से अधिक मौन रखते हैं और कभी भी ऐसे वचनों का उच्चारण नहीं करते, जिनके कारण आश्रव यानी पाप कर्मों का आगमन प्रारंभ हो जाय । वे तो संवर का आराधन करने के लिये मधुर शब्दों का Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004008
Book TitleAnand Pravachan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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