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________________ वचने का दरिद्रता...! ११७ "देखो ! मेरे दाँत कठोर थे अतः कभी के गिर गये किन्तु जबान कोमल होने के कारण ज्यों की त्यों है । अतः ध्यान रखो कि तुम अपना व्यवहार अपनी जबान के अनुसार ही कोमल बनाओगे तो समाज में और देश में सम्मानित होकर टिक सकोगे अन्यथा दाँतों के समान कठोर होने पर लोगों की दृष्टि से गिर जाओगे ।" भी छुटकारा प्राप्त वस्तुतः वाणी की मधुरता मनुष्य को श्रेष्ठ बनाती है, साथ ही संवर का कारण बनकर पापकर्मों के उपार्जन को रोकती है। जो व्यक्ति अपने विवेक को जागृत रखकर अप्रिय, कटु और अहितकर भाषा का प्रयोग नहीं करता उसकी आत्मा को नये कर्म नहीं जकड़ते और शनैः शनैः बद्ध कर्मों से कर लेता है । हमारे शास्त्र भी व्यक्ति को यही आदेश देते हैं कि- विवेकपूर्वक बोलो, आवश्यकतानुसार बोलो, पापरहित बोलो, धर्म प्रचार हो ऐसा बोलो तथा मधुर बोलो। ऐसा करने वाला व्यक्ति ही अपनी वचनगुप्ति पर काबू रखता हुआ अपनी आत्मा को ऊँचा उठा सकता है | संवर पापकर्मों के आगमन को रोकने वाला बाँध है । अतः हमें अगर पापकर्मों से बचना है तो वचनगुप्ति का ध्यान रखना होगा । वचनों में बड़ी चमत्कारिक • शक्ति होती है । प्रिय वचन बोलकर जहाँ एक डाक्टर मरीज को मौत के मुँह से भी खींच लाता है वहीं कटु शब्दों के प्रयोग से कमजोर दिलवाला मृत्यु का ग्रास भी बन सकता है । मधुर वचनों के प्रयोग से ही शत्रु मित्र बनता है तथा कटु वचनों के उच्चारण से मित्र शत्रु । इतना ही नहीं हमारे शास्त्र तो यहाँ तक कहते हैं वाया दुरुत्ताणि दुरुद्धराणि, वेणुबंधीणि महभाणि । - दशवकालिक सूत्र - वाणी से बोले हुए दुष्ट और कठोर वचन जन्म-जन्मान्तर के वैर और भय के कारण बन जाते हैं । " इसीलिये विवेकी पुरुष अपने एक-एक शब्द को तौलकर जिह्वा पर लाते हैं । वे जानते हैं कि विवेकपूर्ण शब्द अनमोल धन के रूप में होते हैं अतः उन्हें यों ही गंवाया नहीं जा सकता । कहा भी हैं Jain Education International पृथिव्यां त्रीणि रत्नानि, जलमन्न सुभाषितम् । मूढ़े : पाषाणखण्डेषु, रत्न संज्ञा विधीयते ॥ यानी इस पृथ्वी पर तीन रत्न हैं । पहला जल दूसरा अन्न और तीसरा मृदुवचन । वे व्यक्ति मूर्ख हैं जो पत्थर के टुकड़ों को रत्नों के नाम से पुकारते हैं । . ऐसा वे भ्रमवश करते हैं । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004008
Book TitleAnand Pravachan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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