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आनन्द प्रचवन | पांचवां भाग
व अन्य धर्मशास्त्र भी नाना प्रकार के आदेश देते हैं तथा बड़ी सावधानी रखने का संकेत करते हैं । भगवान महावीर का कथन है
अवण्णवायं च परम्मुहस्स,
पच्चक्खओ पडिणीय च भासं । ओहारिणि अप्पियकारिणि च, भासं न भासिज्ज सया स पुज्जो ॥
-दशवकालिक सूत्र अर्थात--जो साधुपुरुष किसी भी प्राणी की प्रत्यक्ष और परोक्ष में भी निंदा नहीं करता, पर-पीड़ाकारी, निश्चयकारी एवं अप्रिय भाषा नहीं बोलता वह पूज्य बनता है।
भगवान द्वारा कथित गाथा से स्पष्ट है कि किसी भी व्यक्ति को ऐसी भाषा का अथवा ऐसे वचनों का प्रयोग नहीं करना चाहिये, जिनके द्वारा सुनने वाले को दुःख हो, वह तिरस्कार का अनुभव करे या अपने आपको उपेक्षित समझे। सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह है कि वचनगुप्ति पर अंकुश रखते हुए अगर व्यक्ति मधुरवाणी का प्रयोग करता है तो उसे न किसी प्रकार का कष्ट होता है, न ही कोई हानि होती है या किसी प्रकार का खर्च ही होता है। जबान से जिस प्रकार कठोर शब्दों का उच्चारण किया जाता है, उसी प्रकार मीठे और प्रिय शब्द भी बोले जा सकते है।
इसलिए संस्कृत भाषा के एक कवि ने कहा है
जिह्वाया खंडनं नास्ति, तालुको नैव भिद्यते ।
अक्षरस्य क्षयो नास्ति, वचने का दरिद्रता ॥ कटुभाषी प्राणियों को कवि ने कितने मधुर शब्दों में ताड़ना देते हुए सीख दी है कि कोमल और प्रिय वचनों का उच्चारण करने पर जबकि जीभ नहीं कटती, तालू नहीं भिदता और न ही भाषा के भंडार में से शब्दों का कोश ही रीता होता है तब फिर मधुर भाषा के प्रयोग में दरिद्रता क्यों रखना चाहिये ?
- कवि का कथन यथार्थ भी है । मीठे शब्दों का उच्चारण करने से मनुष्य तो क्या पशु-पक्षी भी प्रसन्न होते हैं अतः प्रत्येक व्यक्ति को सदा हितकारी और प्रिय वचन बोलने चाहिये । अनर्गल प्रलाप और गर्वोक्तियों से कोई लाभ नहीं होता अपितु कभी-कभी मान-हानि होने की ही संभावना रहती है। एक छोटा-सा उदाहरण है
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