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वचने का दरिद्रता....!
धर्मप्रेमी बंधुओ, माताओ एवं बहनो !
प्रसंगवश कुछ दिन अन्य विषयों पर हमने विचार किया, किन्तु वैसे संवर के सत्तावन भेदों में से छः भेदों को हमने लिया था और आज पुनः संवर के सातवें भेद पर आ रहे हैं । संवर के सत्तावन भेदों में से सातवाँ भेद वचनगुप्ति है । वचनगुप्त का अर्थ है वाणी का प्रयोग अथवा वचनों का उच्चारण करना ।
आप सभी जानते हैं कि जबान से शब्दों का उच्चारण करना तनिक भी कठिन नहीं है । प्रत्येक बिना किसी कठिनाई के बोल सकता है और चाहे जितना बोलता चला जा सकता है । किन्तु 'वचनगुप्ति' को संवर के भेदों में सम्मिलित करने का महत्व इसलिये है कि वह मानव को यह संकेत करे कि वाणी का प्रयोग किस प्रकार किया जाय ।
आज विश्व का प्रत्येक व्यक्ति यही चाहता है कि अन्य सभी मनुष्य उसका सम्मान करें, उसकी इच्छा का आदर करें और उससे प्रभावित हों, दूसरे शब्दों में वह अन्य सभी व्यक्तियों पर अपने व्यक्तित्व का प्रभाव डालना चाहता है तथा समाज में सर्वोपरि स्थान पाना चाहता है । किन्तु उसकी यह कामना तभी पूरी हो सकती है जबकि वह अपनी वचनगुप्ति पर काबू रखे अथवा अपनी वाणी का इस प्रकार प्रयोग करे कि उसे सुनने वाले प्रसन्न हों, सन्तुष्ट हों तथा उन वचनों को अपने लिये हितकारी समझें ।
वचनगुप्ति का किस प्रकार प्रयोग किया जाय, इस विषय में हमारे जैनशास्त्र
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