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आनन्द प्रवचन | पांचवां भाग
द्वेष रूपी वृक्षों को जड़ों से उखाड़ने के लिये तथा संयमश्री का आवाहन करने के लिये समभाव का आश्रय लेना चाहिये । और ऐसा अन्तरात्मा ही कर सकता है।
परमात्मा- आत्मा की तीसरी अवस्था परमात्मा या मुक्तात्मा के रूप में समझी जा सकती है।
मैं आपको अभी बता ही चुका हूँ कि बहिरात्मा कषायों से युक्त होती है तथा जड़-चेतन के विवेक से शून्य बनी रहकर क्रोध, मान, माया तथा लोभादि कषायों में रमण करती हुई बाह्य पदार्थों में आसक्ति रखती है। परिणाम यह होता हैं कि उसकी आत्मा सदा मलिन बनी रहती है और वह जन्म-जन्म में नाना प्रकार के कष्टों को भोगती हुई संसार में परिभ्रमण करती रहती है। ऐसी आत्मा का सुधार होना अर्थात् उसका कर्म-बन्धनों से मुक्त होना बड़ा कठिन होता है ।
किन्तु जब आत्मा में विवेक जागृत हो जाता है और वह सद्गुरु के संपर्क में आकर अपने आपको बाह्य पदार्थों से सर्वथा भिन्न समझ लेती है तो वह संसार से उदासीन होकर समभाव को धारण कर लेती हैं और सम्यक्ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र की आराधना करती हुई अपने आपको कर्म-मुक्त कर चलती है। आत्मा की ऐसी स्थिति अंतरात्मा कहलाती है। और उसकी गति सुधार की ओर हो जाती है। अन्तरात्मा में समभाव का आविर्भाव हो जाने से ऐसी अनिर्वचनीय एवं अभूतपूर्व शीतलता आ जाती है तो केवल अनुभव से ही जानी जा सकती है, वह सब प्रकार के संतापों से मुक्त होकर अपने शुद्ध स्वरूप में रमण करने लगती है और शनैः-शनैः कर्ममुक्त होकर सिद्ध दशा को प्राप्त करती हुई ऊर्ध्वगमन करती है। दूसरे शब्दों में वह अपने समस्त कर्मों का प्रक्षय करके लोकाकाश के अन्त में स्थित हो जाती है। भगवान महावीर ने इस विषय में फरमाया है
जह रागेण कडाणं कम्माणं पावगो फलविवागो। जह य परिविहीणकम्मा, सिद्धा सिद्धालयमुवेन्ति ॥
–औपपातिक सूत्र -यह संसारी जीव राग-द्वेष विकारों के कारण उपार्जित कर्मों का दुष्फल भोगता है, और जब समस्त कर्मों का क्षय कर डालता है तो सिद्ध होकर सिद्धक्षेत्र को प्राप्त करता है। तो सिद्धक्षेत्र को प्राप्त करने का अधिकार जो आत्मा प्राप्त कर लेती है वह परमात्मा अथवा मुक्तात्मा कहलाती है । और यही उसकी तीसरी तथा सर्वोत्कृष्ट अवस्था मानी जाती है।
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