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आत्मा की विभिन्न अवस्थाए
. कहने का तात्पर्य यही है कि अन्तरात्मा जीव आत्मज्ञान प्राप्त कर लेता हैं
और उसे यह भान हो जाता है कि मैं चिदानन्दमय हूं । संसार का प्रत्येक पदार्थ मुझ से भिन्न है और किसी भी प्राणी से मेरा नाता नहीं है। जब शरीर ही मेरा अपना नहीं है तो अन्य पदार्थ और प्राणी मेरे कैसे हो सकते हैं ? ऐसी भावनाएं जब उसके अन्तर में जाग जाती हैं तो किसी भी पदार्थ के प्रति उसे राग अथवा मोह नहीं रह जाता।
___ वस्तुतः मोह ही आत्मा को निबिड़ कर्मों में बद्ध करने वाला और आत्मा को अनन्त काल तक संसार में परिभ्रमण कराने वाला होता है । आठों कर्मों में मोहकर्म की स्थिति सबसे अधिक यानी सत्तर कोटाकोटि सागरोपम की होती है। एक बार भी जीव इसमें फंस जाता है तो इतने लम्बे समय तक वह अपना पिण्ड फिर नहीं छुड़ा पाता । मोह में इतनी जबर्दस्त आकर्षण शक्ति है कि विश्व का कोई भी प्राणी इससे प्रभावित हुए बिना नहीं रहता । एक कवि ने अपनी सहज और स्वाभाविक भाषा में कहा है
न छूटी है चींटी, न छूटा है हाथी,
न छूटा है कोई परिन्दा । सबकी गर्दन फंसी है इसमें,
इस मोह ने जगत को कर दिया है अंधा । कवि का कहना यथार्थ है। मोह कर्म ऐसा नागपाश है कि इसमें जकड़ा हुआ प्राणी सहज ही मुक्त नहीं हो पाता जब तक कि आत्मा में समभाव की जागृति नहीं होती । और समभाव तभी आता है जबकि प्राणी सांसारिक प्रलोभनों से बचे तथा कषायों से अपने आप को मुक्त करे । समभाव के अभाव में कभी संयम धन की प्राप्ति नहीं होती क्योंकि उस समय कषायों का तीव्र उदय होता है । कषाय भाव चारित्र मोहनीय कर्म के उदय से उत्पन्न होता है। शास्त्रों में विधान है कि अनंतानुबंधी कषाय का नाश होने पर सम्यक्त्व की उत्पत्ति होती है। अप्रत्याख्यानावरण मोह के हटने पर एकदेश संयम होता है, प्रत्याख्यानावरण कषाय के दूर होने पर सर्वदेश संयम आता है तथा संज्वलन कषाय के हटने पर यथाख्यात संयम का प्रादुर्भाव होता है।
___ इस प्रकार मोहकर्म संयम का घातक होता है, पर समभाव के द्वारा जब मोहरूपी वह्नि शांत हो जाती है जब संयम-रूप लक्ष्मी आत्म-मन्दिर में प्रवेश करती है।
कहने का सारांश यही है कि मोहरूपी आग को शांत करने के लिये, राग
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