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आनन्द प्रवचन | पांचवां भाग
"महाराज ! मेरे सम्मुख तो मौत नाच रही थी। तेल की एक बूंद भी अगर जमीन पर गिर जाती तो आपके सैनिक मेरी गर्दन उसी क्षण उड़ा देते । फिर मैं किस प्रकार इधर-उधर दृष्टिपात कर सकता था।"
भरत महाराज स्वर्णकार की बात सुनकर हँस पड़े और उसे समझाते हुए बोले
___ "देखो भाई ! तुम तो इसी जन्म की मृत्यु से इतने भयभीत हो गए कि तुम्हारी दृष्टि दुल्हन के समान सजी हुई इस विनीता नगरी से विरक्त होकर अपने तेल के कटोरे पर केन्द्रित रही, फिर मैं तो जन्म-जन्म की मृत्यु से भयभीत हूँ। तब बताओ, मेरा मन इस संसार से विरक्त और उदासीन क्यों नहीं होगा? पुनः पुनः जन्म और पुनः-पुनः मृत्यु के भय से ही मेरी दृष्टि अन्तर्मुखी हो गई है और मुझे अपनी आत्मा के हानि लाभ के अलावा और कुछ भी दिखाई नहीं देता । प्रतिपल मैं आत्मा को बद्ध-कर्मों से छुड़ाने और नवीन कर्म-बन्धन से बचाने के विचार में रहता हूं। यही कारण है कि भगवान ने मेरी समस्त संसार से विरक्त भावनाओं को जानकर मेरा इसी जन्म में मुक्त होना बताया है।"
_____ महाराज भरत की बात सुनकर स्वर्णकार की आँखें खुल गई और उसकी समझ में आ गया कि महाराज की आत्मा संसार में रहते हुए भी संसार से विरक्त है तथा वह राग-द्वषादि कषायों से परे रहकर सम्यक् ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र में रमण कर रही है।
बंधुओ, आप भी समझ गये होंगे कि अन्तरात्मा अथवा अन्तर्मुखी आत्मा इसी प्रकार जल में रहते हुए भी जल से दूर रहने वाले कमल के समान संसार में रहते हुए भी संसार से विरक्त रहती है। वह सांसारिक प्रलोभनों से बचती हुई आत्मशुद्धि एवं आत्म-मुक्ति के प्रयत्न में ही सदा रहती है । समभाव की स्वर्गीय सुधा का अजस्र स्रोत उसके अन्तर में प्रवाहित रहता है और इस प्रकार पवित्र और उत्तम भावनाओं से युक्त आत्मा शाश्वत सुख की अधिकारिणी बनती है। शास्त्र में कहा गया है
भावना-जोग सुद्धप्पा, जले णावा व आहिया । नावा व तीरसंपन्ना, सव्व दुक्खा तिउट्टइ ॥
-सूत्रकृतांग अर्थात्-जो आत्मा पवित्र भावनाओं से शुद्ध है, वह जल पर रही हुई नौका के समान है । वह आत्मा नौका की तरह ही संसार-सागर के तीर पर पहुंच कर सभी दुखों से छाँटकारा प्राप्त कर लेती है ।
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