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आनन्द प्रवचन | पांचवां भाग राजा ने उत्तर दिया-"गुरुदेव ! ये लोग तो चमड़ा तैयार करते-करते इसकी दुर्गन्ध के आदी हो गए हैं । पर मुझे कहाँ इसका अभ्यास है ? मैं तो इसे सहन नहीं कर सकता।"
राजा की बात सुनकर महात्मा जी मुस्कराये और बोले-"राजा ! तुम्हारे प्रश्न का उत्तर यही है कि जिस प्रकार चमार चमड़े की दुर्गन्ध में सतत रहने के कारण उसका अनुभव नहीं करते, उसी प्रकार तुम भी रात-दिन विषय-भोगों में लिप्त रहने के कारण उनमें से उठने वाली दुर्गन्ध का अनुभव नहीं करते । किन्तु मैं भोगों की दुर्गन्ध में रहने का अभ्यासी नहीं हूं अतः मुझे राजमहल में उनकी दुर्गन्ध आती है और इसलिये मुझे वहाँ जाने की इच्छा नहीं होती।" ।
____महात्मा जी की बात सुनते ही राजा की आँखें खुल गई और उसी क्षण से उसका चित्त भोग-विलास से विमुख हो गया।
इस उदाहरण से स्पष्ट है कि संतों की संगति करने से बहिरंग आत्मा पर अवश्य ही प्रभाव पड़ता है और वह कभी न कभी जाग त हुए बिना नहीं रहती।
अन्तरात्मा-अभी मैंने आपको बताया था कि क्रोध, मान, माया, लोभ, राग एवं द्वषादि में रमण करनेवाली आत्मा बहिरात्मा कहलाती है। बहिरात्मा अपने स्वरूप ज्ञान से सर्वथा शून्य रहती है तथा बाह्य पदार्थों के प्रति आत्मभाव रखती है । किन्तु जब उसे सद्गुरु का संयोग या संतों की संगति प्राप्त होती है तो वह राग-द्वषादि से विमुख होकर सम्यक्ज्ञान, सम्यक्दर्शन एवं सम्यक् चारित्र में रमण करने लगती है । उसे यह विश्वास हो जाता है कि - "मैं चिदानन्दमय हूं । इस संसार के समस्त पदार्थ मुझसे भिन्न हैं अतः इनसे मेरा कोई संबंध नहीं है। जब शरीर ही मेरा नहीं है तो अन्य पदार्थ कैसे मेरे हो सकते हैं ?"
सारांश यही है कि अंतरात्मा कषायों से मुक्त होकर ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र की आराधना करती हुई बाह्य जगत से दृष्टि फेरकर अपने अन्दर झांकती है तथा आत्मा की शुद्धि का प्रयत्न करती है। वह अपने आपको जानने और समझने का प्रयत्न करती है तथा उसका पूर्ण झुकाव आत्मदर्शन और आत्मज्ञान की ओर होता है। वह संसार में रहकर भी संसार से विरक्त और भोगों को भोगते हुए भी उनसे अलिप्त रहती है।
यह सुनकर आपको संशय होगा कि सांसारिक ऐश्वर्य का उपभोग करते हुए भी व्यक्ति उनसे विरक्त कैसे रह सकता है ? इस बात को समझने के लिये एक शास्त्रोक्त उदाहरण है जो कि आपमें से कई बंधुओं ने सुना या पढ़ा होगा।
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