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आत्मा की विभिन्न अवस्थाएं
एवं श्रद्धा सहित आचरण करने पर वह धीरे-धीरे अपने शुद्ध रूप में आने लगती है। सद्गुरु की या सच्चे सन्तों की संगति बुरे से बुरे और ऋ र व्यक्तियों के हृदयों को भी बदल देती है । तथा व्यक्ति उनके प्रभाव से आत्मोन्नति के सही मार्ग को अपना लेता है । एक छोटा-सा उदाहरण है
एक राजा सदा अपने गुरु के समीप उनके दर्शनार्थ जाया करता था। एक दिन उसके मन में इच्छा हुई कि मेरे गुरु राजमहल में पधार कर उसे पवित्र बनाएं।
, अपने मन की इच्छा व्यक्त करते हुए राजा ने कहा- "गुरुदेव, आज कृपा करके मेरे राजमहल को अपने चरणों से पवित्र कीजिये।"
संत बोले--राजन् ! मैं चल तो सकता हूं पर वहां की दुर्गन्ध मुझसे नहीं सही जाती।"
राजा के नेत्र आश्चर्य से फैल गये । उसी स्थिति में वह बोला-"भगवन् ! आप कैसी बात कर रहे हैं । मेरे भवन में तो सदा इत्र से सुवासित जल छिड़का जाता है । वहां दुर्गन्ध कैसी ?" ... महात्मा जी गंभीरतापूर्वक बोले-"राजन् ! तुम्हारे इस प्रश्न का समाधान मैं कुछ समय बाद करूंगा । पहले तुम मेरे साथ हरिजनों की बस्ती में चलो। वहाँ कुछ रुग्ण व्यक्ति हैं, जिन्हें दवा देने का वक्त हो गया है। मैं ही उन्हें दवा दिया करता हूँ।"
- राजा इस आशा से संत के साथ चल दिया कि हरिजनों की बस्ती के कामों से निवृत्त होकर गुरुदेव मेरे साथ राजमहल की ओर चलेंगे। - महात्माजी राजा को लेकर शहर से बाहर की ओर चल दिये । कुछ दूर जाने पर चमारों की बस्ती आई । चमारों के झोपड़ों में कहीं चमड़ा कमाया जा रहा था, कहीं सुखाया जा रहा था और इस प्रकार का कार्य जगह-जगह चालू रहने के कारण चारों ओर बड़ी दुर्गन्ध फैल रही थी।
बेचारा राजा जो कि सुगन्धित वातावरण में रहा करता था, किस प्रकार उस दुर्गन्ध को बर्दाश्त करता । थोड़ी देर तक तो नाक पर रुमाल दबाये रहा पर अन्त में घबराकर बोला-"भगवन् ! शीघ्र यहाँ से चलिये। इस दुर्गन्ध के मारे मुझसे तो खड़ा भी नहीं रहा जाता।"
संत हँस दिये और बोले-वाह, यहाँ इतने लोग रात-दिन रहते हैं पर सभी खुश हैं । कोई भी तो दुर्गन्ध की शिकायत नहीं करता। फिर तुम्ही इतने परेशान क्यों हो रहे हो ?"
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