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आत्मा की विभिन्न अवस्थाएँ
आत्मा और ईश्वर को भिन्न-भिन्न नहीं कहा जा सकता। हाँ, भिन्नता अगर है तो • वह तरतमता की अवश्य है । ईश्वर अथवा परमात्मा की चेतना सर्वोत्कृष्ट कोटि की है और उसका विकास चरम सीमा तक का है तथा आत्मा अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन एवं अनन्त आनन्द स्वभाव वाली होने पर भी कर्मों के संयोग से बोझिल और उनके द्वारा आच्छादित रहती है । पर ज्यों-ज्यों उसके कर्मों का क्षय होता जाता है वह अपने वास्तविक और शुद्ध स्वरूप को प्राप्त करती जाती है तथा कर्मों के पूर्णरूप से क्षय हो जाने पर परमात्मदशा को प्राप्त करती है।
आत्मा की अवस्थाएँ हमारे शास्त्रों में तरतमता की दृष्टि से आत्मा की तीन अवस्थाएँ बताई गई हैं-पहली बहिरात्मा, दूसरी अन्तरात्मा और तीसरी परमात्मा । कहा भी हैबहिरातम, अन्तआतम परमातम, जीव त्रिधा है ।
-छहढाला . अर्थात् जीव तीन प्रकार के हैं-बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा ।
(१) बहिरात्मा-बहिरात्मा आत्मा की पूर्णतया अविकसित अवस्था होती है। इस अवस्था में वह कषायों से युक्त रहती है तथा बाह्य पदार्थों के प्रति ममत्व भाव रखती हुई जड़-चेतनादि के विवेक से शून्य होती है। बहिरात्मा या बहिरंग आत्मा को मलिन करने के छ कारण बतलाए गए हैं। वे हैं -- क्रोध, मान, माया, लोभ, राग तथा द्वेष । इन छ: कारणों का जैनशास्त्रों में तो उल्लेख है ही, जनेतर ग्रन्थ भी काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह और अहंकार इन छ: कारणों से आत्मा का दोषयुक्त होना बताते हैं । इस प्रकार जैन और जैनेतर दर्शनों की मान्यता लगभग समान ही है।
___ आशय कहने का यही है कि इन्हीं कारणों से आत्मा दूषित होती है और इनके द्वारा बँधने वाले कर्मों के वशीभूत होकर जीव नरक, तिर्यच, मनुष्य और देव गति, इन चारों में भ्रमण करता रहता है । भले ही आत्मा नरकगति में जाए अथवा देवगति में, उसके लिये श्रेयस्कर कोई भी नहीं है। क्योंकि जन्म प्राप्त करने पर उसके परिणाम रोग, शोक दुःख, अप्रिय संयोग-वियोग एवं मृत्यु आदि सभी दुःखकष्ट जीव को भुगतने पड़ते हैं।
बहिरंग जीव की दृष्टि सदा बाह्य जगत् की ओर रहती है। उसका ध्यान बाहरी जगत् में केन्द्रित रहता है, भविष्य में क्या होगा इसका भान उसे नहीं रहता।
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