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________________ १०२ आनन्द प्रवचन | पांचवां भाग अर्थात् — जो जिनेश्वर पहले हो चुके हैं वे सब सुव्रती यानी सदाचारी थे और जो भविष्य में होंगे वे भी चरित्र के बल पर जिनेश्वर होंगे। का उपदेश देते रहे, क्योंकि वे काश्यप भगवान महावीर स्वामी के करते थे । स्पष्ट कि निर्मल और दृढ़ चरित्र के अभाव में ज्ञान का होना भी न होने के समान है । कहा भी है- 'ज्ञानं भारं क्रियां बिना क्रिया के अभाव में ज्ञान केवल बोझ है । जिस प्रकार फल न देने वाला वृक्ष लाभहीन साबित होता है, उसी प्रकार चरित्र रूपी फल न देने वाला यानी चरित्र का विकास और पोषण न करने वाला ज्ञान भी अर्थहीन माना जाता है । ज्ञान की सार्थकता चरित्र की प्राप्ति में ही है और सच्चा ज्ञानी वही है जो अपने ज्ञान से अपने चरित्र को दृढ़ एवं शुद्ध बनाता है । जो व्यक्ति अपने ज्ञान को आचरण में न उतारकर भी यह समझ लेता है कि ज्ञान से हमें कर्मों से मुक्ति मिल जाएगी और हमारी आत्मा का कत्याण हो जाएगा, वह भ्रम में रहता है । जबकि उसका ज्ञान उसे किसी भी उत्तम फल की प्राप्ति नहीं करा पाता । इसलिये बन्धुओ, हमें ज्ञान प्राप्ति के साथ ही साथ चरित्र की प्राप्ति भी करनी चाहिए और इसके लिये मन, वचन तथा कर्म, इन तीनों पर पूर्ण अंकुश रखते हुए अपने जीवन के प्रत्येक कार्य को निर्दोष बनाना चाहिये । हमें अपने जीवन की छोटी से छोटी क्रिया की भी उपेक्षा नहीं करनी चाहिये क्योंकि उन सभी के द्वारा चरित्र का निर्माण होता है। बालू एक-एक कण से पर्वत का निर्माण होता है और एक-एक क्षण से युग निर्मित हो जाते हैं । इसी प्रकार छोटी-छोटी बातों से ही चरित्र बनता है । चरित्र का क्षेत्र बड़ा व्यापक है । वह जहाँ व्यक्ति के लिये कल्याणकर है, वहाँ समाज, जाति और देश को भी गौरवान्वित करने वाला है । सदाचार के सिद्धान्त प्रत्येक वर्ण, प्रत्येक वर्ग और प्रत्येक समाज के लिये लागू होते हैं । भले ही कोई व्यक्ति शिक्षक हो, कोई सैनिक हो, कोई व्यापारी हो या कोई सरकारी पदाधिकारी अथवा डॉक्टर वैद्य हो, सभी के लिये सदाचार की मर्यादाएं हैं और उन्हें अपनेअपने क्षेत्र के अनुसार उनका पालन करना चाहिये । अपनी-अपनी मर्यादा के अनुसार कर्तव्य का पालन करने वाला व्यक्ति निश्चय ही सदाचारी कहलाता है । गृहस्थ अपने जीवन को मर्यादा में रखता है तो वह चरित्रवान है और साधु अगर अपनी 「 जिनेश्वर सद्गुणों धर्म का आचरण Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004008
Book TitleAnand Pravachan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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