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आनन्द प्रवचन | पांचवां भाग
आकाशवाणी सुनकर संत ने अपना ध्यान समाप्त किया और आँखें खोलकर ऊपर की ओर दृष्टि करके बोले-"नहीं, नाव को उलटने से क्या लाभ होगा ? व्यर्थ ही अनेक जानें जायेंगी। हाँ, अगर उलटना ही है तो इन सब व्यक्तियों की बुद्धि को उलट दो।"
ऐसा होता है संत पुरुषों का चारित्र । वे न क्रोध को अपने हृदय में स्थान देते हैं और न बदले की भावना को । अपने अपकारी का भी वे उपकार करते हैं । पर यह शक्ति उन्हें तभी प्राप्त होती है जबकि वे मन और इन्द्रियों पर पूर्ण प्रभुत्व स्थापित कर लेते हैं। आगे कहा गया है--
चौथे पद को चीह्न के वहाँ जाय समावै हो ।
- सुंदर ऐसे साधु के ढिग काल न आवे हो । चारित्र बल के धनी साधु पुरुषों के लिये अन्त में कवि सुन्दरदास जी ने कहा है कि उनके समक्ष काल भी आने से हिचकिचाता है और दूर ही रहता है। इनका अभिप्राय यह नहीं है कि वे इस संसार में मानव देह के साथ ही सदा जीवित रहते हैं, उनका आशय यह है कि सम्यक् ज्ञान, दर्शन एवं चरित्र की आराधना करने वाले साधक इस नश्वर देह का त्याग करके भी संसार में अपनी कीति के द्वारा अमर रहते हैं और जन्म-मरण के दुखों से सर्वदा के लिये मुक्त होकर काल को पराजित कर देते हैं।
यह प्रभाव चारित्र का ही होता है। चारित्र के अभाव में श्रद्धा और ज्ञान भी फलदायक नहीं बन पाते । ज्ञान और दर्शन का प्रयोग चारित्र के रूप में महापुरुष करते हैं । चारित्र ही इन दोनों की सच्ची कसौटी भी कहा जा सकता है क्योंकि चारित्र की उच्चता के द्वारा ही इनकी सही परख होती है । चारित्र की उच्चता जीवन को सफल बनाती है और इसकी निकृष्टता जीवन को असफल । चारित्र को दृढ़ और उच्च बनाने में यद्यपि व्यक्ति को अनेक कष्ट उठाने पड़ते हैं, किन्तु जिस प्रकार सोना तपाये जाने पर शुद्ध, निर्मल और चमकदार हो जाता है, उसी प्रकार विवेकी पुरुष महान कष्ट सह लेने के बाद चारित्रवान और प्रतिभावान बनता है।
चारित्रवान बनना सरल नहीं अपितु अत्यन्त कठिन है। अनेक व्यक्ति महा विद्वान होते हैं । न जाने कितनी पुस्तकें उन्हें कंठस्थ होती हैं और कितनी ही भाषाओं के वे अधिकारी होते हैं। फिर भी यह आवश्यक नहीं है कि चरित्रवान भी होते हैं । कभी-कभी देखा जाता है कि बड़े-बड़े ज्ञानी और विद्वान भी चारित्र की दृष्टि से तो शून्य होते हैं।
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