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चिन्तामणि रत्न - चरित्र
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नहीं होती । भोग और योग दोनों एक दूसरे से पूर्णतया विपरीत होते हैं । एक पूर्व है और दूसरा पश्चिम । अतः स्पष्ट है कि दोनों का कभी और कहीं भी मेल नहीं हो सकता। इसलिये साधु पुरुष जो मुक्ति के इच्छुक होते हैं, वे संसार के प्रति आसक्ति नहीं रखते । उनका हृदय समभाव से परिपूर्ण होता है । न किसी के प्रति उनका विशेष राग होता है और न किसी के प्रति द्वेष । दुश्मनों के प्रति भी वे दया भाव रखते हैं तथा उनकी कल्याण-कामना करते हैं । एक उदाहरण है ।
नाव नहीं, बुद्धि उलटो !
एक बार एक सन्त अनेक यात्रियों के साथ किसी नदी को पार करने के लिये नाव में बैठे । नाव नदी के वक्ष को चीरती हुई ज्योंही आगे बढ़ी, कुछ दुष्ट व्यक्ति परस्पर एक दूसरे से अश्लील मजाकें और गंदी-गंदी असभ्यतापूर्ण बातें करने लगे । यह देखकर संत ने उन व्यक्तियों को समझाते हुए कहा – “भाइयो ! चार व्यक्तियों के बीच में बैठकर इस प्रकार की बातें नहीं करनी चाहिये । वार्तालाप ही करना है तो अच्छी बातें करो। देखो ! तुम्हारी इन घृणित बातों को सुनकर नाव पर बैठे हुए अन्य समस्त व्यक्ति भी शर्मिन्दगी महसूस कर रहे हैं ।
किन्तु संत की नसीहत का प्रभाव उलटा हुआ और वे व्यक्ति आगबबूला हो गए । क्रोध में आकर उन लोगों ने संत को गालियाँ देना प्रारम्भ कर दिया और उससे भी संतोष न हुआ तो घूसों से, लातों से और जूतों से प्रहार करने लगे । किसी ने ठीक ही कहा है
―
शिक्षा वाको दीजिये, जाको सीख सोहाय । सीख न दीजे बाँदरा, आपन हानि कराय ॥
तो संत को भी दुष्ट व्यक्तियों को सीख देने के परिणामस्वरूप मार खानी पड़ गई । किन्तु उन्होंने रंचमात्र भी विरोध नहीं किया और ध्यानस्थ होकर बैठ
गए ।
उसी समय आकाशवाणी हुई - "भंते ! आप कहें तो इसी क्षण इन दुष्टों को इनकी करतूतों का फल चखाने के लिये नाव को उलट दूं ।”
आकाशवाणी सुनते ही नाव पर बैठे हुए समस्त यात्री काँप उठे और वे दुष्ट संत के पैरों पर गिर कर अपने अपराधों के लिये क्षमा माँगने लगे ।
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आकाशवाणी पुनः हुई - " महात्मन् ! बताइये क्या इन नीच व्यक्तियों को नसीहत देने के लिये नाव को उलट दिया जाय ?"
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