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आनन्द प्रवचन | पांचवां भाग चरित्रवान् सत्पुरुष कभी स्वप्न में भी किसी का दिल नहीं दुखाते अत: किसी का उनके प्रति भी वर-भाव नहीं रहता। वे सदा अपनी मधुर वाणी से दुखी एवं संतप्त प्राणियों के हृदयों पर स्नेह एवं सहानुभूति का मरहम रखते हैं । वे कभी भी पापमय, कर्कश और पीडाजनक भाषा का प्रयोग नहीं करते वरन् भली-भांति समझ-बूझकर हित, मित, सत्य और पथ्य भाषा का ही प्रयोग करते हैं। वे प्रतिक्षण इस बात का ध्यान रखते हैं
जिह्वाया खण्डनं नास्ति, तालुको नैव भिद्यते ।
अक्षरस्य क्षयो नास्ति, वचने का दरिद्रता ? कहते हैं कि मधुर भाषण करने से जिह्वा कटती नहीं तालु भी नहीं भिदता और कोमल शब्दों की कमी भी नहीं है, विशाल भंडार भरा हुआ है। फिर मधुर शब्द बोलने में दरिद्रता क्यों दिखाई जाय ?
इस प्रकार सज्जन पुरुष कभी किसी को रंचमात्र भी दुःख नहीं पहुंचाते, उलटे अपने मधुर एवं अमृतमय शब्दों से दुखी प्राणियों को सुख पहुंचाने का प्रयत्न करते हैं । उनके विषय में आगे कहा है
के तो मुनि होय रहै के हरि गुण गाव हो ।
भरम-कथा संसार की सब दूर भगाव हो॥ कहा गया है कि या तो वे अपना सब कुछ त्यागकर मुनि बन जाते हैं और वन में जाकर तपादि साधना करते हैं। पर अगर यह संभव नहीं होता तो घर में । रहकर भी निरासक्त भाव से सांसारिक कर्तव्यों को पूरा करते हुए भगवान के भजन
में निमग्न रहते हैं । सांसारिक छल-प्रपंच से वे दूर रहते हैं तथा विकथा का सर्वथा त्याग करके आत्माभिमुख होने का प्रयत्न करते हैं। आगे कहा है
पांचू इन्द्री बस कर, मन ही मन लावै हो ।
काम क्रोध मद लोभ को, खिण खोद वधावै हो । साधु पुरुष अपनी पांचों इन्द्रियों पर और मन पर पूर्ण अंकुश रखते हैं तथा क्रोध, मान, माया एवं लोभादि कषायों को तथा काम वासनाओं को जड़ मूल से उखाड़ कर फेंक देते हैं। उन्हें पूर्ण विश्वास होता है कि इन सब विकारों के रहते हुए सच्चा सुख जो कि आत्मोत्पन्न होता है, कभी हासिल नहीं हो सकता। जब तक मन में विषय-विकार बने रहते हैं तब तक वह संसार के बाह्य पदार्थों से सुख-प्राप्ति की कामना करता है और उन कामनाओं के विद्यमान रहने पर मन में विरक्ति जाग्रत
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