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________________ चिन्तामणि रत्न - चरित्र आचार्य चाणक्य ने भी कहा है कर्मायत्त फलं पुंसां बुद्धिः कर्मानुसारिणी । तथापि सुधियश्चार्याः सुविचार्येव कुर्वते ॥ अर्थात् — फल मनुष्य के कर्म के अधीन है, बुद्धि कर्म के अनुसार आगे बढ़ने वाली है, तथापि विद्वान् और महात्मा पुरुष भली-भांति विचार कर ही कोई कर्म करते हैं । इस प्रकार महापुरुष मन, वचन एवं बचते हैं और जब ये तीनों योग उनके वश में दृढ़ बन जाता है । चरित्रवान् पुरुषों की सबसे औरों के दोष नहीं देखते अपितु सदा अपनी और उनके निवारण की कोशिश करते हैं । 1 कर्म इन तीनों को साधकर पापों से रहते हैं तो स्वतः ही उनका चरित्र बड़ी विशेषता तो यह है कि वे कभी कमियों को ढूंढ़ने का प्रयत्न करते हैं महात्मा कबीर के शब्दों में वे यही अनुभव करते हैं - Jain Education International बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न दीखा कोय | जो दिल खोजा आपना, मुझसा बुरा न कोय ॥ 63-3 ऐसे पर - गुण एवं स्व-दोषदर्शी महामानव ही आत्म-मुक्ति के पथ पर स्वयं अग्रसर होते हैं, औरों के लिये मार्गदर्शक बनते हैं तथा अपने उत्तम चरित्र को आदर्श के रूप में संसार के समक्ष सदा के लिये छोड़ जाते हैं । ऐसे भव्य जन विश्व के समस्त प्राणियों को चाहे वह मनुष्य हो, पशु-पक्षी या छोटे से छोटा कोट-पतंग हो, सभी को प्यार करते हैं तथा बदले में उनका प्यार प्राप्त करते हैं । इतना ही नहीं, वे सांसारिक प्राणियों का स्नेह तो प्राप्त करते ही हैं, ईश्वर के भी प्रिय बन जाते हैं । कवि सुन्दरदास जी ने अपने एक भजन में भी यही कहा है ऐसो जन रामजी को भावे हो । कनक कामिनी परिहरै नहि आप बंधावे हो । 1 यानी प्रभु को भी ऐसे व्यक्ति ही प्रिय लगते हैं जो सोना-चाँदी, धन-वैभव, पत्नी तथा पुत्रादि के प्रति तनिक भी मोह, ममता या आसक्ति नहीं रखते । अपने परिवार के प्रति रहे हुए ममत्व को वे विश्व के समस्त प्राणियों में बाँट देते हैं । धन-दौलत का त्याग करके फकीरी धारण कर लेते हैं और इस प्रकार स्वयं किसी के बन्धन में न बँधते हुए सर्वस्व का त्याग करके निरासक्त भाव धारण कर लेते हैं । आगे कहा है सब ही तें निरवैरता काहूं न दुखावे हो । शीतल वाणी बोल के अमृत बरसाव हो । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004008
Book TitleAnand Pravachan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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