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________________ ६ गैर अपने होंगे शीरीं दोस्त हो जाते हैं दुश्मन, अगर व्यक्ति मृदुभाषी है तो पराये व्यक्ति भी उसके अपने यानी मित्र बन जाते हैं और अगर उसकी वाणी में कटुता है तो उसके दोस्त भी दुश्मन हो जाते हैं । आनन्द प्रवचन | पांचवां भाग अपनी जबां । हो गर तलख हो जिसकी जुबां ॥ वस्तुतः वाणी में बड़ी शक्ति है और वह मानव के चरित्र निर्माण में बड़ा भाग लेती है । वाणी के लिये तो यहाँ तक कहा जाता है कि यदि बारह वर्ष तक कोई व्यक्ति सत्य बोले तो उसे वाक्-सिद्धि हो जाती है अर्थात् वह जो कुछ कह देता है वह हो जाता है । तात्पर्य यही है कि प्रत्येक मानव को अपनी वाणी पर पूर्ण अधिकार रखना चाहिए तथा निरर्थक प्रलाप, कटूक्ति अथवा असत्य भाषण से अपने आप को बचाना चाहिये । सच्चरित्रता के लिये वाणी पर अंकुश होना नितांत आवश्यक है । एक विद्वान 'साइरस' ने अपने अनुभवों का वर्णन करते हुए कहा था - " - "मुझे कभी इसका खेद नहीं हुआ कि मैं मौन क्यों रहा किन्तु इसका खेद अनेकों बार हुआ है कि मैं बोल क्यों पड़ा ।" ऐसे कथनों से स्पष्ट होता है कि महापुरुष अपनी वाणी को पूर्णतया अपने वश में रखने का प्रयत्न करते हैं और इसीलिये उनका चरित्र सच्चरित्र कहलाता हुआ लोगों के लिये अनुकरणीय बनता है । चरित्र को बनाने वाला तीसरा योग कर्म है । इसके विषय में तो अधिक कहने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि सभी जानते हैं बुरे कामों का नतीजा बुरा ही होता है । मनुष्य की महानता इसी में है कि वह अपना बुरा करने वाले का भी भला करे । ईंट का जवाब पत्थर से देने में कोई बहादुरी नहीं है, बहादुरी इसी में है कि व्यक्ति किसी के द्वारा किये गए अहित को भी भूल जाय, सहन करे और बदले में उसका हित करे । ऐसा करने पर ही बंधन से बचता है तथा पूर्व कर्म क्षीण होते हैं । 'सूत्रकृतांग' में कहा गया है तुट्टति पावकम्माणि, नवं कम्ममकुव्वओ । - जो नए कर्मों का बंधन नहीं करता है, उसके पूर्वबद्ध पापकर्म भी नष्ट हो जाते हैं । Jain Education International समभाव से उसे वह नवीन कर्मों के इसीलिये विवेकी पुरुष भूतकाल की चिंता न करते हुए, और भविष्य का . विश्वास न रखते हुए अपने वर्तमान को ही सुन्दर बनाने का प्रयत्न करते हैं और वह प्रयत्न है फलासक्ति की आशा से रहित निष्काम कर्म करना । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004008
Book TitleAnand Pravachan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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