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चिन्तामणि रत्न-चारित्र
महात्मा गांधी ने भी एक स्थान पर लिखा है-'चरित्र रूपी सम्पत्ति दुनिया की तमाम दौलतों से बढ़कर है।' इस तथ्यपूर्ण कथन पर हम गहराई से विचार करें तो वास्तव में ही सच्चाई के समीप पहुंच सकते हैं। चरित्र की महानता का वर्णन शब्दों से नहीं किया जा सकता और इसीलिये केवल यही कहा जाता है कि अगर धन चला जाए तो समझो कुछ नहीं गया है, स्वास्थ्य चला जाय तो समझो कुछ हानि हुई है, पर यदि चरित्र चला जाय तो समझो कि सर्वस्व ही लुट गया है।
___ चरित्र निर्माण कैसे हो? अनेक व्यक्ति आचरण का संबंध केवल शारीरिक क्रियाओं से ही मानते हैं। वे समझते हैं कि शरीर से पापपूर्ण क्रियायें न करके सेवा, परोपकार, दान, एवं ईश्वर की पूजा-अर्चना आदि कर लेना ही सदाचरण है। पर यह बात पूर्णतया सत्य नहीं है। यद्यपि ये सब कार्य भी चरित्र के अंग हैं किन्तु उसे पूर्णता प्रदान नहीं कर सकते। चरित्र-निर्माण के लिये तो मानव को मनसा, वाचा एवं कर्मणा प्रयत्नशील बनना चाहिये।
वैसे तो मन वचन एवं कर्म, ये तीनों ही मनुष्य के द्वारा किये जाने वाले प्रत्येक शुभ और अशुभ कार्य के लिए जिम्मेदार होते हैं। किन्तु इन तीनों में से भी अधिक शक्तिशाली है मन । किसी संस्कृत के विद्वान का कथन है
मनसैव कृतं पाप न वाण्या न कर्मणा ।
येनैवालिगिता कान्ता तेनैवालिंगिता सुता ॥ अर्थात-मन के भाव से ही पाप माना जाता है, वचन या कर्म से नहीं। पत्नी और पुत्री के आलिंगन में भाव की ही भिन्नता है।
कहने का आशय यही है कि सच्चरित्रता की कुजी वास्तव में मन है । अतः मन में कभी कुविचारों को पनपने नहीं देना चाहिये । अगर मन में बुरे विचार आते हैं तो वचन और शरीर को भी वे गलत दिशा में प्रवृत्त कर देते हैं। दूसरे शब्दों में इन्द्रियाँ मन के द्वारा ही चलाई जाती हैं, वे मन की चेरी हैं। इसलिये चरित्रनिर्माण के इच्छुक व्यक्ति को अपना मनोयोग संतुलित करना चाहिये ।
दूसरा है वचनयोग। वचनयोग यानी वाणी। यह भी चरित्र-निर्माण में सहायक बनती है। वाणी का महत्त्व भी कम नहीं है। एक उर्दू के कवि ने कहा है
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