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________________ आनन्द प्रवचन | पांचवां भाग किन्तु जो महामानव, वीतराग-तीर्थकर आदि अपनी आत्मा को कर्ममुक्त करने का प्रयत्न करते रहे वे मुक्ति के अधिकारी तो बने ही साथ ही अपनी कीर्ति को भी सदा के लिये अमर कर गए । इसीलिये हमारे शास्त्र कहते हैं कि सम्यकज्ञान सम्यक्दर्शन एवं सम्यक् चारित्र की आराधना करके अपने जीवन को सफल बनाना चाहिये अर्थात् आत्मा के शुद्ध स्वरूप की प्राप्ति करनी चाहिये । आत्मा को अपने निज स्वरूप में लाने के लिये ही व्यक्ति का समस्त प्रयत्न एवं चिन्तन-मनन होना चाहिये । ऐसा करने पर ही मानव-जन्म सार्थक हो सकता है। संस्कृत के एक कवि ने भी कहा है-- आनन्दरूपो निजबोधरूपो, दिव्यस्वरूपो बहुनामरूपः । तपःसमाधौ कलितो. न येन, वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ।। अर्थात् - जिस मनुष्य ने तपस्या करके और समाधिभाव धारण करके अपनी आत्मा के अनन्त आनन्दमय रूप को नहीं समझा। जिसने अपने उपयोगमय चेतन स्वरूप को नहीं पहचाना और अपने समस्त पर्यायों से अतीत दिव्यस्वरूप को नहीं जाना तथा उसे प्राप्त करने की चेष्टा नहीं की, उसकी जिन्दगी निरर्थक ही चली गई। कवि का कथन पूर्णतया सत्य है। समस्त आस्तिकशास्त्र एकमत से इस बात को कहते हैं कि मानव-जीवन का उच्चतम लक्ष्य और उसकी पूर्ण सार्थकता केवल इसी बात में है कि मानव अपने सम्पूर्ण प्रयत्न अखंड और अक्षय शांति तथा अनन्त एवं अव्याबाध सुख की प्राप्ति के लिये करे। उसका सम्पूर्ण चिन्तन एवं पुरुषार्थ आत्म-शुद्धि के लिये ही हो । चिन्तन का प्रभाव चिन्तन का जीवन पर बड़ा जबर्दस्त प्रभाव पड़ता है। दूसरे शब्दों में यह भी कहा जा सकता है कि जैसा चिन्तन होता है वैसा ही जीवन बनता है। चिन्तन तो प्रत्येक व्यक्ति हमेशा और हर समय करता ही रहता है किन्तु उसे चिन्तन के पूर्व यह ध्यान रखना आवश्यक है कि उसका चिन्तन शुभ हो। अगर चिन्तन अशुभ होगा तो उसकी समस्त क्रियायें पाप-पूर्ण होंगी और जीवन दोषों से- परिपूर्ण बन जाएगा। प्रश्न हो सकता है कि अशुभचिन्तन किसे कहा जा सकता है और शुभ किसे ? थोड़े शब्दों में इसका उत्तर यही है कि इहलौकिक सुख, समृद्धि एवं यश Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004008
Book TitleAnand Pravachan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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