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चिन्तन का महत्व
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इनके अलावा कुछ व्यक्ति ऐसे होते हैं जो अच्छे कार्यों को करके प्रतिष्ठा प्राप्त कर लेने में तथा कीर्ति कमा लेने में जीवन की सफलता मानते हैं। कहा भी है:
चलं वित्त चलं चित्त, चले जीवित यौवने ।
चलाचलमिदं सर्वं, कीतिर्यस्य स जीवति ।। अर्थात् - धन नश्वर है. चित्त अस्थिर है जीवन और यौवन क्षणभंगुर हैं। इतना ही नहीं, यह संपूर्ण सृष्टि ही अध्रुव है। केवल इस अशाश्वत संसार में जिसकी कीर्ति जीवित है वह मनुष्य जीवित है।
सस्कृत के इस कवि ने जीवन की सफलता के विषय में जो बताया है वह भी गलत नहीं है किन्तु मान-प्रतिष्ठा अथवा कीर्ति प्राप्त कर लेना ही जीवन का उद्देश्य मान लेना और उसे ही जीवन की सफलता समझ लेना काफी नहीं है। हमारा जैनधर्म तो पुकार-पुकार कर यही कहता है कि मानव जीवन का उच्चतम उद्देश्य अखंड और अक्षय शांति तथा अनन्त और अव्याबाध सुख की प्राप्ति करना ही मानव जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य होना चाहिये । इसी प्राप्ति के लिये उसका चिन्तन-मनन, साधना, पुरुषार्थ और प्रयत्न आदि सभी कुछ होने चाहिये । जो भी भव्य प्राणी उस अक्षय सुख की प्राप्ति के लिये जुट जायेगा, कीर्ति तो स्वयं उसके चरण चूमेगी और उसके चाहे बिना भी उसका वरण कर लेगी। कीति तो घास-फूस के समान है। आप जानते हैं कि कोई भी किसान अपने खेत में घास उगाना नहीं चाहता। वह अनाज के लिये बीज बोता है और उसी को पाने के लिये दिन-रात परिश्रम करता है। वह जानता है कि मुझे अनाज प्राप्त करना है और अगर वह मुझे मिल जाता है तो घास तो उसमें से स्वयं ही निकल आएगा। कोति की इच्छा मत करो
___ यही हाल कीति का भी है। जो व्यक्ति अपने पापों का क्षय करके अपनी आत्मा को संसार-मुक्त करना चाहता है उसे कीर्ति के लिये परिश्रम करने की आवश्यकता नहीं होती। वह तो स्वयं ही उसे मिल जाती है। वह लोगों के द्वारा वाहवाही प्राप्त करने की अपेक्षा नहीं रखता । क्योंकि उस वाह-वाही के द्वारा उसकी आत्मा का कल्याण नहीं होता। सिकन्दर ने तलवार के बल पर बड़े भारी साम्राज्य को जीता। उसकी कीर्ति अवश्य जीवित है पर उससे उसकी आत्मा को क्या लाभ हुआ ? कुछ भी नहीं। इसी प्रकार बड़े-बड़े कवि और विद्वान अपनी कीति तो इस लोक में छोड़ गये किन्तु उसी को अपना लक्ष्य बना लेने के कारण अपनी आत्मा का कल्याण नहीं कर सके ।
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