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________________ आनन्द प्रवचन | पांचवां भाग वर्तमान का सदुपयोग हमारे आज के विषय के अनुसार हमें यह देखना है कि चिन्तन का जीवन पर क्या प्रभाव पड़ता है और किस प्रकार के चिन्तन से समय का सदुपयोग होता है। . मनुष्य को सर्व प्रथम यह चाहिये कि वह भूतकाल के लिये अफसोस करना और भविष्य के लिये सपने देखना छोड़कर केवल अपने वर्तमान के लिये चिन्तन करे और उसे ही सफल बनाने का प्रयत्न करे । - मनुष्य का वर्तमान तभी सफल हो सकता है जबकि वह अपने जीवन के बीतते हुए प्रत्येक क्षण को सुन्दर बनाने का निश्चय कर ले। उसका मन सदैव इस चिन्तन में रहे कि वह किस प्रकार प्रत्येक पल को दूषित विचारों से तथा दूषित कर्मों से बचाये रख सकता है। दूषित विचार ही दुष्कर्मों को करने में प्रेरणादायक बनते हैं। इसलिये चिन्तन करते समय कुविचारों को पास भी नहीं फटकने देना चाहिये अगर कुविचार दिल और दिमाग में घर कर गए तो मानव का चिंतन कुकर्मों के लिये हो जाएगा और उसी के अनुरूप वह कार्य करने लगेगा। मनुष्य के लिये चिन्तन करने का सर्वोत्तम विषय यही होना चाहिये कि वह मानव-जन्म प्राप्त करके किस प्रकार अधिक से अधिक पाप-कर्मों का क्षय करे और पूण्य कर्मों का संचय कर सके। उसे सदा यही विचार करना चाहिये कि यह मनुष्य जन्म अनन्तानन्त पुण्यों के योग से और अनन्त काल तक नाना योनियों में परिभ्रमण करते हुए महान् दु.खों को भोगने के पश्चात् मिला है। और अगर यह व्यर्थ चला गया तो फिर न जाने कब और कितना काल व्यतीत होने पर पुनः मिल सकेगा। अब प्रश्न यह उठ सकता है कि मानव-जीवन की सार्थकता किसमें है और मनुष्य का क्या उद्देश्य होना चाहिये ? जीवन के उद्देश्य के सम्बन्ध में लोगों के विभिन्न दृष्टिकोण होते हैं। जो पुद्गलानन्दी और आत्म-तत्त्व के भान से रहित होते हैं वे परलोक नहीं मानते तथा वर्तमान जीवन के साथ ही आत्मा का अन्त समझते हैं। ऐसे व्यक्ति केवल यही चिन्तन करते हैं कि जितना शारीरिक सुख, आनन्द और मौज करना है इसी जीवन में कर लो चाहे ऋण के भार से दब जाओ पर ऋण लेकर ही घी पिओ। उनका यह महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत् । पर ऐसा मानने वाले घोर अंधेरे में रहते हैं और वे केवल अपने इस जन्म को ही नहीं अपितु आने वाले अनेक जन्मों को भी बिगाड़ लेते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004008
Book TitleAnand Pravachan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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