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आनन्द प्रवचन | पांचवां भाग
स्वावलम्बी होना
__ जीवन को सफल बनाने में स्वावलम्बन तीसरा एवं अनिवार्य साधन है । जो व्यक्ति अपने बुद्धिबल, मनोबल अथवा शारीरिक बल पर भरोसा न करके दूसरों का मुह जोहता है अर्थात् दूसरों पर निर्भर रहता है, उसे पग-पग पर तो कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है और अन्त में असफलता ही हाथ लगती है।
स्वावलम्बन व्यक्ति के हृदय में आत्मविश्वास बढ़ाता है, स्फूर्ति प्रदान करता है, उसे कर्मठ बनाता है तथा उसमें शक्ति का संचार करता है। और इसके विपरीत परावलम्बन मनुष्य को अकर्मण्य, डरपोक, प्रमादी तथा फायर बना देता है। संत तुलसीदास जी ने ठीक ही कहा है
___ पराधीन सपनेहु सुख नाहीं ।
देखहु कर विचार मन माहीं । आशय यही है कि औरों के सहारे की आकांक्षा रखने वाले व्यक्ति की जाग्रत अवस्था का तो कहना ही क्या है, उसे स्वप्न में भी सुख की प्राप्ति नहीं होती। क्योंकि जिस प्रकार खंभे के जरा से जीर्ण होते ही, अथवा उसके हिलते ही छत का अस्तित्व खतरे में पड़ जाता है । उसी प्रकार व्यक्ति जिस पर अवलम्बित होता है, अर्थात् जिसके भरोसे पर रहता, अगर वह व्यक्ति अपने वचन से जरा भी हट जाय तो आश्रित व्यक्ति का जीवन डाँवाडोल हो उठता है तथा उसका अस्तित्व खतरे में पड़ जाता है।
जिस व्यक्ति में स्वावलम्बन नहीं होता उसमें स्वाभिमान भी नहीं रह पाता। स्वावलम्बी पुरुष ही अपने गौरव को अक्षुण्ण रख सकता है तथा अपने बल-बूते पर प्रत्येक साध्य की सिद्धि कर सकता। वह न किसी अन्य व्यक्ति के भरोसे रहता है और न ही देव-देव पुकार कर स्वयं को अकर्मण्य बनाता है। कहा भी है
मूढ़ेः प्रकल्पितं देवं तत्परास्ते क्षयं गताः।
प्राजस्तु पौरुषार्थेन पदमुत्तमतां गताः ।। अर्थात्-दैव मूर्ख लोगों की कल्पना है। इसके भरोसे रहकर वे नाश को प्राप्त होते हैं । बुद्धिमान लोग पुरुषार्थ करके अपनी उन्नति कर लेते हैं।
तात्पर्य यही है कि व्यक्ति को पुरुषार्थी होना चाहिए। जो पुरुषार्थ में विश्वास रखता है, वह कभी पराधीन होना पसंद नहीं करता। अपने पुरुषार्थ अथवा स्वावलम्बन से जो कार्य सम्पादित होता है उसमें एक विशेष प्रकार के सुख और
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