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________________ ७६ आनन्द प्रवचन : तृतीय भाग ___क्या कहा है कवि ने ? यह नहीं कि सारे शास्त्रों को पढ़ लेने वाले, अनेक धर्म-ग्रन्थों को कण्ठस्थ कर लेने वाले तथा अनेकों विद्याओं को जानने वाले हमारे गुरु हैं। ___ कवि ने स्पष्ट कहा है-जो इस जगत को जंगल समझते हैं तथा समस्त सांसारिक पदार्थों को अनित्य मानकर इनसे प्राप्त होने वाले क्षणिक और झूठे सुखों की कामना नहीं करते, उन्हें तिलाञ्जलि दे देते हैं तथा अपने शरीर से रंच-मात्र भी स्नेह न रखते हुए विरक्त होकर अपने पापों का नाश करने के लिए साधना का म गं ग्रहण करते हैं और जो निरन्तर अपनी इन्द्रियों पर तथा मन पर संयम रखते हए त्याग-तपस्यापूर्वक धर्माराधन करते हैं, इतना ही नहीं अपनी स्त्री, पुत्र, परिवार एवं धन-वैभव पर से सम्पूर्ण ममत्व हटा लेते हैं वे ही सच्चे मायने में हमारे गुरु हैं और ऐसे गुरु विरले ही होते हैं । कहा भी है : गुरवो विरलाः संति, शिष्य संतापहारका. । ऐसे गुरु विरले ही मिलते हैं जो कि अपने शिष्यों के कषाय-जनित कष्टों को और जन्म-मरण रूप संताप को मिटाने में मार्ग-दर्शन करते हैं । ___ तो बंधुओ ! इसीलिए कहा गया है कि सत्संगति करने से ज्ञान की वृद्धि होती है तथा सन्मार्ग प्राप्त होता है । संत-जनों की संगति करने से सदा लाभ ही होता है, हानि की संभावना नहीं रहती। भले ही व्यक्ति ऐसी आत्माओं की संगति अधिक न कर सके फिर भी उसे जहाँ तक बने प्रयत्न करना चाहिए । कभी-कभी तो क्षणभर का सत्संगत भी जीवन को ऐसा मोड़ दे देता है कि जीवन भर की कमाई व्यक्ति को उस अल्पकाल में ही हो जाती है। ब्रह्माण्ड की परिक्रमा कहा जाता है कि एक बार देवताओं में इस बात के लिए बड़ा झगड़ा हुआ कि सबमें प्रथम पूज्य कौन है ? बहत काल तक वाद-विवाद करने पर भी जब इसका कोई हल नहीं निकला तो सर्व सम्मति से निश्चय किया गया कि समस्त ब्रह्माण्ड की जो कोई पहले परिक्रमा करके आ जाय वही सर्वप्रथम पूज्य माना जायेगा। यह निश्चित होते ही सब देवता अपने-अपने वाहनों पर सवार होकर ब्रह्माण्ड की परिक्रमा करने के लिये रवाना हो गये। किन्तु गणेश जी बड़ी चिन्ता में पड़े, क्योंकि उनका वाहन चूहा था । उस पर सवार होकर वे कब ब्रह्माण्ड की परिक्रमा करके लौटते ? बड़े भारी असमंजस में पड़े हुए वे मन मारे एक स्थान पर बैठ गये और अपनी समस्या का हल कैसे हो इस पर विचार करने लगे। किन्तु बहुत देर तक सोचने पर भी उन्हें कोई रास्ता सुझाई नहीं दिया अतः ब्रे अत्यन्त दुःखी हो गये। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004006
Book TitleAnand Pravachan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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