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________________ सत्संगति दुर्लभ संसारा ७७ अकस्मात् ही उधर से नारद ऋषि गुजरे। ज्योंहि गणेश जी की दृष्टि उन पर पड़ी, वे नारद जी के समीप आये । गणेश जी को बहुत ही उदास देखकर नारद ने पूछा-"आप आज किस चिन्ता में पड़े हैं ?" "क्या बताऊँ देव ! आज मैं बड़ी परेशानी में हूँ । देवताओं में कौन पूज्य है ? इस बात को साबित करने के लिये सब देवता अपने-अपने शीघ्रगामी वाहनों पर सवार होकर ब्रह्माण्ड की परिक्रमा करने चल दिये हैं । पर मैं इस चूहे पर चढ़कर कैसे ब्रह्माण्ड की परिक्रमा करू ? कृपा करके आप ही कोई उपाय बताइये !" गणेश जी ने नारद से प्रार्थना की। नारद जी बड़े ज्ञानी और तीव्र बुद्धि के थे। कुछ पल में ही बोले-"आप राम का नाम लिखकर उसकी परिक्रमा कर लीजिये । राम नाम में तो अखिल ब्रह्माण्ड निहित है । चिन्ता किस बात की ?" बस फिर क्या था । गणेश जी ने चट-पट राम का नाम पृथ्वी पर लिखकर उसकी परिक्रमा कर ली। परिणामस्वरूप उन्हें सर्वप्रथम ब्रह्माण्ड की परिक्रमा के रके आने वाला और सर्वोपरि पूज्य माना गया । कहा भी जाता महिमा आसू जान गनराऊ, प्रथम पूजिअत नाम प्रभाऊ । इस उदाहरण से साबित होता है कि गणेश जी नारदमुनि की अल्प संगति से ही देवताओं में प्रथम पूज्य बन गये तथा एक उपाय को बता देने के कारण ही नारद जी ने गणेश जी के गुरुपद को प्राप्त कर लिया। तो बन्धुओ, इसीलिये आपको भी सदा यह ध्यान रखना चाहिये कि अल्पकाल के लिये ही सही पर सत-समागम अवश्य करें। कौन जानता है कि किस क्षण मन की गति करवट बदल ले और गुरु का एक शब्द भी आपके जीवन को सार्थक बना दे। संत-जीवन और एक साधारण व्यक्ति के जीवन में महान् अन्तर होता है। बिरले व्यक्ति ही अपनी वासनाओं और भोगलिप्साओं पर विजय प्राप्त करके आत्म-साधना के पथ पर चल सकते हैं । संसार के कार्य तो तनिक बुद्धिबल, मनोबल या शारीरिक बल से सम्पन्न कर लिये जा सकते हैं किन्तु आत्म-उत्थान का कार्य सहज ही सम्भव नहीं होता । उसके लिये मह पुरुषों को त्याग, तपस्या, सहनशीलता, समभाव, शांति, निराशक्ति तथा संतोष आदि की कठिन कसौटियों पर खरा उतारना होता है। पूर्ण एकाग्रचित्त से उन्हें चारित्र Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004006
Book TitleAnand Pravachan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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