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आनन्द प्रवचन : तृतीय भाग
नहीं होता अपितु बुद्धिमत्ता से क्रियात्मक रूप द्वारा समझाने से होता है । एक उदाहरण से यह बात समझ में आ जाएगी ।
खेतों में पानी पहुँचा रहा हूँ
एक बार एक संत घूमते-घामते गंगा के किनारे जा पहुँचे । वहाँ पर वे बड़े मनोयोग पूर्वक लोगों के क्रिया-कलाप देखने लगे । एक स्थान पर उन्होंने देखा कि कुछ भक्त अपने लोटों में जल भरकर और दोनों हाथों से उन्हें ऊपर उठाकर अपना मस्तक झुकाते हुये पुनः जल में छोड़ रहे हैं ।
सन्त ने उनसे पूछा - " तुम लोग यह क्या कर रहे हो ?"
"सूर्य को जल चढ़ा रहे हैं महाराज !” भक्तों ने उत्तर दिया और पुनः अपने कार्य में लग गये ।
उन अनुभवी और ज्ञानी सन्त ने यह देखा तो उन्हें उद्बोधन देने का विचार किया । किन्तु साथ ही सोचा कि जबान से कहने पर शायद ये लोग समझेंगे नहीं और बिगड़ पड़ेंगे अतः दूसरा रास्ता अपनाया । वह रास्ता क्या था ?
सन्त उन भक्तों के समक्ष ही कुछ और दूर धारा की तरफ गये तथा अपने कमंडल में जल भर-भरकर जल्दी-जल्दी सूर्य के विपरीत दिशा में फेंकने लगे ।
अन्य लोगों ने तथा सूर्य को जल चढ़ाने वाले भक्तों ने जब उनके इस अजीब कृत्य को देखा तो चकित होकर कहने लगे - "महाराज ! यह आप क्या कर रहे हैं ? सूर्य को जल न चढ़ाकर किधर जल फेंक रहे हैं ?"
संत ने बड़ी गम्भीरता पूर्वक उत्तर दिया- "भाई, मैं बड़ी दूर से आया हूँ । मेरे देश में जल का बड़ा अभाव रहता है और यहाँ इसकी कमी नहीं है । अत: मैंने विचार किया है कि क्यों न अपने देश के सूखे पड़े खेतों में यहाँ से जल पहुँचा दूँ ? मुझे सूर्य को जल नहीं चढ़ाना है अपने देश के खेतों में पहुँचाना है और वे इसी दिशा में हैं। अगर मैं उन्हें यहाँ से जल पहुँचा दूँगा तो वे सब हरे-भरे हो जाएँगे ।"
संत की बात सुनकर वहाँ उपस्थित सभी व्यक्ति और भक्त लोग हँस पड़े । बोले - "लगता है कि आपका दिमाग तपस्या करते रहने के कारण कुछ फिर गया है । भला सोचिये तो सही कि यहाँ से आपका उछाला हुआ जल आपके देश के खेतों में कैसे पहुँच सकेगा ? और इतनी दूर से किस प्रकार उन्हें हराभरा कर सकेगा ?"
संत मुस्कुराते हुये बोले - " मेरा दिमाग तो बिलकुल ठीक काम रहा है और इसलिये मुझे विचार आया है कि जब आपके द्वारा दिया हुआ जल इस पृथ्वी लोक से सूर्य लोक तक पहुँच सकता है तो फिर मेरा देश तो सूर्यलोक से बहुत पास है अत: यह जल निश्चय ही वहाँ तक पहुँच जाएगा ।"
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