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________________ सत्संगति दुलभ संसार ६७ हो गये और एक पिस्तोल हर वक्त अपने कोट की जेब में रखने लगे। एक दिन जब दोनों मित्र घूमने जा रहे थे, गाँधी जी को सन्देह हुआ और उन्होंने केलन बैक की कोट की जेब में हाथ डालकर उसमें से पिस्तौल निकाल लिया तथा आश्चर्य से बोले-"क्या महात्मा टालस्टाय के शिष्य भी पिस्तौल जैसी हिंसक वस्तु अपने पास रखते हैं ?" "अगर जरूरत हो तो रखने में क्या हर्ज है ?" बैंक ने मुस्कराते हुये उत्तर दिया। "किन्तु अभी ऐसी कौन-सी जरूरत इसे रखने की आ पड़ी है ?" बापू ने पुन: प्रश्न किया। "बात यह है कि मुझे विश्वस्त सूत्रों से मालूम हुआ है कि कुछ व्यक्ति आपकी हत्या करने का षड्यन्त्र रच रहे हैं । अतः आपकी सुरक्षा के लिये मैं इसे हर समय अपने पास रखता हूँ।" बैंक का उत्तर था। ___ सुनकर गाँधी जी आवेश में आकर बोले-"मित्र, ! आप मेरी रक्षा करेंगे ? यह असंभव है। वैसे यह आत्मा अमर है, इसे कोई नहीं मार सकता। दूसरे, हम अहिंसा के सिद्धांत को मानने वाले हैं अतः हमें अहिंसा पर ही निर्भर रहना चाहिये, हिंसा पर नहीं । यह शरीर तो एक न एक दिन नष्ट होना ही है पर इसके लिये आप किन्हीं गरीबों का खून कर देंगे तो वह मैं सहन नहीं कर सकूगा । अगर आप मेरे हितैषी मित्र हैं तो इसी समय यह पिस्तौल फेंक दीजिये। भले ही कोई मुझे मारना चाहता हो, पर अगर आपने मेरे कारण किसी को भी मारा तो मैं आपको कभी क्षमा नहीं करूंगा।" मिस्टर केलन बैंक ने गांधी जी की यह बात सुनकर अत्यंत लज्जित होते हुए उसी समय उनसे अपनी भूल के लिये क्षमा माँगी। इस उदाहरण से साबित हो जाता है कि सज्जन पुरुष अपने दुश्मन ही नहीं, अपने हत्यारे का भी अहित कभी नहीं चाहते और इस प्रकार अगर उनसे लाभ की संभावना न भी हो तो हानि तो कभी होती ही नहीं। सज्जनों की संगति से दूसरा लाभ बौद्धिक विकास के रूप में होता है। संतों का अनुभव ज्ञान बड़ा भारी होता है अतः उनके मार्ग-दर्शन से बिगड़ता हुआ काम भी बन जाता है । सच्चे संत भले ही जबान से शिक्षा न दें पर उनके आचरण से भी मनुष्य को मूक शिक्षा मिलती रहती है तथा जीवन सत्पथ पर बढ़ता है । केवल किताबी ज्ञान हो मनुष्य को ऊँचा नहीं उठा सकता जब तक कि उसका आचरण भी ज्ञानमय न हो जाये तथा इसके लिये संत समागम अवश्यक है । बहुत-सी बातें ऐसी होती हैं जिनका असर जबान से कहने पर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004006
Book TitleAnand Pravachan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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