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________________ सत्संगति दुर्लभ संसारा ६ε संत की बात सुनकर सब स्तब्ध रह गये और उनकी समझ में संत की बात आ गई कि जहाँ कारण है वहीं उसका कार्य भी हो सकता है । ऐसा नहीं कि कारण तो कहीं है और कार्य कहीं अन्यत्र हो जाए। वे यह भी समझ गए कि जब भौतिक क्षेत्र में भी कार्य और कारण का यह नियम है तो आध्यात्मिक क्षेत्र में तो यह संभव ही कैसे हो सकता है ? आत्मा का कार्य मोक्ष है और उसके कारण सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान एवं सम्यक्चरित्र आदि हैं और इस प्रकार जबकि मोक्ष आत्मा में ही है उसके कारण भी आत्मा में ही हैं फिर उसका उपाय बाहर कैसे होगा ? ऐसा तो कदापि नहीं होगा कि आत्मा कहीं हो, मोक्ष कहीं हो और उसकी प्राप्ति का उपाय कहीं और हो । जब संत की क्रिया से और उनके समझाने से भक्त लोगों के हृदय में उनकी बात उतर गई तो वे सब उनके सामने नतमस्तक हो गए और उनके प्रति अत्यंत कृतज्ञ हुए । 1 ऐसा क्यों हुआ ? उन संत की अल्प संगति के कारण हो । हाँ, बिना वचन से कहे जाने पर भी उनकी रहस्यमयी क्रिया से न समझ लोगों की बुद्धि ने क्रांतिकारी मोड़ लिया और उनका बौद्धिक विकास सही दिशा में हुआ । सज्जनों की संगति से इसी प्रकार लाभ हुआ करता है । तीसरा लाभ सत्संगति से यह होता है कि मनुष्य के मन के अनेक रोग मिट जाते हैं । मन के रोग क्या होते हैं, इस विषय में जानने की आपको उत्सु कता होगी । यद्यपि वे आपसे छिपे नहीं हैं । आज सभी प्राणी इन रोगों से पीड़ित हैं पर उन्हें वे रोग नहीं मानते । तो, मन के रोग हैं- क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, विषय-विकार, असहिष्णुता एवं उच्छृंखलता आदि । यही सब संत समागम या उनके सहवास से निर्मूल होते हैं । इसीलिये उन्हें मंगलमय तीर्थ कहा जाता है। संत तुलसीदास जी ने भी कहा है :मुद मंगलमय संत समाज । जिमि जग जंगम तीरथ राज में महान् त्याग पंडित रघुनाथ और निमाई पंडित दोनों मित्र थे। एक बार दोनों मित्र नाव में बैठकर जल-यात्रा का आनन्द ले रहे थे। उसी समय रघुनाथ पंडित ने कहा – “मैंने न्याय शास्त्र पर 'दोधीति' नामक टीका लिखी है ।” सुनकर निमाई पंडित बोले- मैंने भी लिखी है टीका, पर अभी अधूरी है । जब-जब मुझे कोई नई बात सूझती है, मैं तुरंत उसे लिख डालता हूँ ।" "क्या यहाँ भी आप अपनी टीका साथ लाए हैं ?" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004006
Book TitleAnand Pravachan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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