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मौन की महिमा ५१ उसकी वाणी में अहंकार या कर्कशता नहीं होती । अपितु उसकी वाणी के समान ही उसका हृदय भी कोमल और करुणा की भावना से परिपूरित होता है । सुन्दर हृदय वाले की वाणी भी उसी के अनुरूप होती है । दूसरे शब्दों में, वाणी एक दर्पण के समान होती है जिस पर मनुष्य के अन्तस्तल का प्रतिबिंब पड़ता है।
वाणी का विवेचन करते हुए एक विद्वान् ने बड़े सुन्दर भाव प्रकट किये हैं:
The first, ingredient in conversation is truth; The next, good sense; the third, good humour, and the forth, wit.
-सर डब्ल टेम्पिल बातचीत का पहला अंश है, सत्य, द्वितीय, सुन्दर, समझ-बूझ, तृतीय, सुन्दर, विनोद और चतुर्थ, वाक्चातुर्य । ___ वस्तुतः वाणी की महिमा अवर्णनीय है। केवल उसे उसका सदुपयोग करने वाला व्यक्ति ही उसे समझ पाता है । हमारे शास्त्रकारों ने भाषा के सम्यक् प्रयोग पर बहुत जोर दिया है । उनका कथन है कि कटु, कठोर या असत्य भाषा का प्रयोग करने की अपेक्षा मौन रहना ही उत्तम है । भाषा पर नियन्त्रण न होने पर कभी-कभी बड़ा भयंकर परिणाम सामने आता है। अर्थात्-वाद-विवाद, तू-तू मैं-मैं, घोर संघर्ष और महाभारत ठन जाने की भी नौबत आ जाती है । किन्तु अगर व्यक्ति मौन का अवलंबन ले लेता है तो बड़े-बड़े संघष भी क्षण भर में समाप्त हो जाते हैं। मौन का महत्त्व ___ मौन का प्रथम तो शरीर से ही बड़ा भारी संबंध होता है । जो व्यक्ति कम बोलते हैं उनके मस्तिष्क की शक्ति कम व्यय होती है और वह शक्ति ज्ञान प्राप्ति में सहायक बनती है। अधिक बोलने वाले का दिमाग अधिक तथा निरर्थक बातें करने से थक जाता है और थके हुए दिमाग से ज्ञानार्जन जैसा होना चाहिये वैसा संभव नहीं होता। दूसरे, अधिक बोलने पर अथवा अधिक वाद-विवाद करने पर व्यक्ति चिढ़ने लगता है तथा आवेश में आकर क्रोधित भी हो जाता है। परिणाम यह होता है कि उसकी बुद्धि मलिन हो जाती है और मलिन बुद्धि ज्ञान को ग्रहण करने में समर्थ नहीं हो पाती। ऐसा क्यों होता है, यह गीता के एक श्लोक से जाना जा सकता है। उसमें बताया
क्रोधाद्भवति संमोहः संमोहात्स्मृतिविभ्रमः ।
स्मृति भ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशाप्रणश्यति ॥ क्रोध से मूढ़ता उत्पन्न होती है, मूढ़ता से स्मृति भ्रान्त हो जाती है, स्मृति भ्रान्त होने से बुद्धि का नाश हो जाता है और बुद्धि नष्ट होने पर प्राणी स्वयं नष्ट हो जाता है।
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