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आनन्द प्रवचन : तृतीय भाग
विवेकवान व्यक्ति निश्चय ही अपनी अमूल्य जिह्वाशक्ति से पुण्य के रूप में नवीन संचय करेगा और वह तभी होगा जबकि वह बहुत सोच-विचार कर वाणी का उपयोग करेगा तथा अनावश्यक और निरर्थक बोलने के बजाय मौन रहेगा।
पूज्यपाद मुनि श्री अमीऋषि जी महाराज ने सच्चे गुरु के लक्षण बताते हुये कहा है :मौन करी रहे नहीं आश्रव के वेण कहे,
संवर के काज मृदु वचन उच्चारे हैं। बोलते हैं प्रथम विचारी निज हिये माहि,
___ जीव दया युत उपदेश विसतारे हैं। आगम के वेण एन, माने सुखदेन येन,
माने मिथ्या केन चित्त ऐसी विध धारे हैं । कहे अमीरिख मुनि ऐसे मौनधारी होय,
तारण तरण सोही सुगुरु हमारे हैं। कितनी सुन्दर बात है ? कहा है-अनर्गल और कटुवचन बोलकर कर्मों का बन्धन करने के बजाय जो मौन रहते हैं, केवल निर्जरा की दृष्टि से मधुर वचनों का उच्चारण करते हैं, पहले विवेकापूर्वक विचार करने के पश्चात् ही बोलते हैं, जीव दया का पालन किया जाय इस हेतु उपदेश देते हैं तथा आगम के वचनों को ही सत्य एवं सुखदायी मानते हैं । स्वयं कभी मिथ्या भाषण नहीं करते तथा मिथ्या भाषण करने की अपेक्षा मौन रहना अधिक पसंद करते हैं ऐसे अपने आपको तथा औरों को भी भव-सागर से पार उतारने की क्षमता रखने वाले ही हमारे सच्चे गुरु कहला सकते हैं। सिक्खों के धर्मग्रन्थ में भी कहा है :
जित बीलिये पति पाईए सो बोल्या परवाण । किक्का बोल विगुच्चणा सुन मूर्ख मन अजान ।।
-(श्रीराग म० १) अर्थात्-ऐसी वाणी ही बोलने योग्य है, जिससे मनुष्य सम्मान पाये। हे मूर्ख और अज्ञानी मन ! कटुवचन बोलकर अपमानित मत हो।
प्रत्येक बुद्धिमान व्यक्ति अपने वचनों का उपयोग बड़ी सावधानी से करता है। वह पूरा ध्यान रखता है कि उसके वचनों से किसी भी व्यक्ति को चोट न पहुंचे और न ही उसके कथन का तिरस्कार ही हो । वाणी के महत्त्व को जान लेने के कारण वह व्यर्थ बकवाद से बचता है, निरर्थक तर्क-वितर्क और वितंडावाद से परे रहता है तथा अनुचित हठ, छल या किसी को धोखे में डालने वाले शब्द नहीं कहता । दूसरों को सन्ताप देने से उसे स्वयं कष्ट होता है इसलिये
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