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________________ विजयादशमी को धर्ममय बनाओ! ३४४ शूर्पनखा के शब्द सुनकर खर, दूषण और त्रिशिरा तीनों भाई लक्ष्मण को मार डालने के लिए आये किन्तु वासुदेव लक्ष्मण का वे क्या बिगाड़ पाते ? वे तीनों स्वयं ही मारे गये। अब जरा मन की गति का चमत्कार देखिये ! शूर्पनखा का पुत्र मारा गया तथा पति और देवर भी समाप्त हुए। किन्तु मन का चमत्कार था कि शूर्पनखा लक्ष्मण का देव रूप सौन्दर्य देखकर मोहित हो गई और उनसे बोली - "लक्ष्मण ! तुम मुझे बहुत अच्छे लगे हो और मैं पूर्णतया तुम पर अनुरक्त हो गई हूँ अतः मुझे स्वीकार करो।" किन्तु वासुदेव के अवतार तथा उत्तम पुरुष लक्ष्मण भला किस प्रकार ऐसा अनाचार कर सकते थे ? उन्होंने उत्तर दिया--"तुम मेरे लिए माता और भाभी के समान हो । क्योंकि प्रथमत: मेरे ज्येष्ठ बन्धु श्री राम वन्द्रजी के समीप आपने प्रार्थना की है अतः मैं तुमसे कैसे विवाह कर सकता हूँ ? यह कदापि सम्भव नहीं है।" लक्ष्मण का यह उत्तर सुन कर शूर्पनखा जो कि कुमति का रूप थी उसकी . मति फिर बदल गई । मन के विषय में सत्य ही कह है कबहूं मन गगना चढ़े, कबहूं गिरे पताल । कबहूं चुपके बैठता, कबहूं जावै चाल ॥ मन के तो बहु रंग हैं, छिन-छिन बदले सोय । एक रंग में जो रहे, ऐसा बिरला होय ॥ वस्तुत: मन कभी तो ऊपर की ओर अर्थात् उत्तम विचारों की ओर अग्रसर होता है और कभी नीचे की ओर यानी अधमता की ओर गिरता है। इस प्रकार इसके अनेक रंग हैं जिन्हें वह क्षण-क्षण में बदल सकता है । शूर्पनखा के मन की भी ऐसी गति हुई । पुत्र के मर जाने पर पहले शोक विह्वल, फिर प्रार्थना का स्वीकार नहीं होने पर क्रोध से लाल-पीली हो । गई। पति तथा देवर आदि के मारे जाने पर लक्ष्मण को देखकर कामविकार के चंगुल में जा फँसी पर उसमें भी सफल न होने से वर की आग में जलने लगी तथा किस प्रकार अपने तिरस्कार का बदला लू यह विचारती हुई अपने भाई महाशक्तिशाली रावण के पास पहुंची । और वहाँ जाकर क्या किया यह अगले पद्य में बताया जा रहा है Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004006
Book TitleAnand Pravachan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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