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________________ ३३२ आनन्द प्रवचन : तृतीय भाग जो पुरुष सच्चे शूरवीर या बहादुर होते हैं वे मृत्यु की रंचमात्र भी परवाह नहीं करते। हमारे यहाँ एक मेजर साहब जो अपने ही समाज के व्यक्ति हैं प्राय दर्शनार्थ आया करते हैं। एक दिन मैंने उनसे पूछा-"आप कहाँ रहते हैं ?' वे बोले-महाराज ! मुझे बॉर्डर पर रहना पड़ता है। ओर वहाँ हमारी जान हथेली पर रहती है। किन्तु देश की सेवा करने में मुझे इतनी प्रसन्नता होती है कि मरने का तनिक भी भय नहीं लगता किसी भी क्षण मरने के लिये तैयार रहता हूँ।" इतिह स उठाकर देखने पर भी हमें ज्ञात होता है कि सरदार भगतसिंह राजगुरु और सुखदेव जैसे अनेकानेक देशभक्तों ने हँसते-हँसते अपने प्राणों का बलिदान किया है । इसके अलावा केवल देश के लिये ही नहीं, धर्म और परोपकार के लिये भी अनेकों वीरों ने अपने प्राणों का उत्सर्ग करने में रंचमात्र भी हिचकिचाहट नहीं की। हमारे धर्म-शास्त्र बताते हैं कि आप ही के जैसे अनेकों श्रावकों में अपने धर्म को न त्यागने में मरणांतक उपसर्ग सहन किये हैं तथा अपने धर्म की रक्षा की है। अनेक राजाओं ने तो शरणागत की रक्षा करने के लिये भी अपने प्राणों की आहुतियां दी हैं। तो श्लोक यही कहता है कि जो शूरवीर होते हैं उनके लिये इस देह से आत्मा का पृथक् हो जाना एक तिनका टूट जाने से अधिक महत्व नहीं रखता। - श्लोक की तीसरी बात है - विरक्त पुरुष के लिये स्त्री तृण के समान इस कथन का यही आशय है कि जो व्यक्ति काम-विकारों के प्रलोभनों को जीत लेता है उसके लिये भोगविलास और नारी तृण के समान महत्त्वहीन साबित होते हैं। देखा जाय तो संसार में चारों ओर नाना-प्रकार के प्रलोभनों का जाल बिछा हुआ है। किन्तु सष्टि के समस्त प्रलोभनों में सबसे बड़ा प्रलोभ । है काम-विकार । यह प्रलोभन इतना जबर्दस्त और व्यापक होता है कि प्रत्येक प्राणो इसके चंगुल में फंसा रहता है । राजा भर्तृहरि ने तो यहाँ तक कह दिया है आसंसारं त्रिभुवमिदं, चिन्वतां तात तादृङ । नैवास्याकं नयनपदवीं श्रोत्रवत्मगितो वा। योऽयं धत्ते विषयकरिणी गाढरूढाभिमान क्षीवस्यान्त ककरणरिणः संयमालान-लीलाम् ॥ कहते हैं- ''भाई ! मैं सारे संसार में घूमा और तीनों भुवनों में खोज कर ली, किन्तु ऐसा कोई मनुष्य मैंने न देखा और न ही सुना, जो अपनी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004006
Book TitleAnand Pravachan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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