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________________ जीवन को नियन्त्रण में रखो ३३३ कामेच्छापूर्ण करने के लिये हथिनी के पीछे दौड़ते हुये मदोन्मत्त हाथी के समान मन को वश में रख सकता है।" तो बन्धुओ, इनके भी कहने का आशय यह है कि विषय-विकार बड़े शक्तिशाली होते हैं और इन्हें जीतना बड़ा कठिन है। किन्तु ये जीते ही नहीं जा सकते यह कहना भी उचित नहीं है। अगर इन काम-भोगों को जीता नहीं जाता तो हमारे तीर्थंकर एवं अवतारी पुरुष आज किस प्रकार हमारी श्रद्धा और पूजा के पात्र बनते ? आज भी अनेक साधु और साध्वियां बाल ब्रह्मचारी मिलते हैं तथा अन्य सब भी संयमी जीवन अपना लेने के बाद पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं। समय पर आया हूं वासवदत्ता मथुरा की अपूर्व सुन्दरी एवं सर्वश्रेष्ठ नर्तकी थी । हजारों व्यक्ति उसकी एक-एक मुसकान के लिये तरसते थे। एक दिन उसने अपने वातायन से देखा कि अत्यन्त सुन्दर एवं युवा भिक्षु पीला वस्त्र ओढ़े तथा भिक्षा-पात्र हाथ में लिये मार्ग से गुजर रहा है । वासवदत्ता उस भिक्षु को देखकर अत्यन्त मोहित हुई और शीघ्रतापूर्वक नीचे आकर पुकार उठी--"भन्ते !" भिक्षु समीप आया और नर्तकी के सामने खड़े होकर उसने अपना भिक्षा का पात्र आगे बढ़ा दिया। किन्तु नर्तको बोली-"आप ऊपर चलिर ! यह मेग महल, मेरी सम्पत्ति और मैं स्वयं आपकी होना चाहती हूँ। आप मुझे स्वीकार कीजिए।" भिक्षु ने उत्तर दिया- 'मैं तुम्हारे पास फिर कभी आऊँगा।" उत्सुकता से वासवदत्ता ने पुछा "कब पधारेंगे आप ?' "जब वक्त आएगा।" कहते हुए भिक्षु उपगुप्त वहाँ से आगे चल दिये । कई वर्ष व्यतीत हो गए और वासवदत्ता अपने दुराचरण के कारण भयंकर रोगों का शिकार बन गई । उसका गगनचुम्बी भवन और अपार सम्पत्ति, सभी कुछ उससे अलग हो गए और वह स्वयं आश्रय रहित होकर सड़क के एक किनारे पर पड़ी थी। शीर पर मैले-कुचले और फटे कपड़े थे तथा शरीर पर अनेक घाव थे जिनसे दुर्गन्ध निकल रही थी। ____ एकाएक भिक्षु उपगुप्त उधर से आ निकले और वासवदत्ता को पहचान लेने के कारण शीघ्र उसके पास आकर बोले- "वासवदत्ता ! इधर देखो, मैं आ गया हैं।" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004006
Book TitleAnand Pravachan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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