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________________ कल्याणकारिणी क्रिया १७ पास ज्ञान नहीं है और इस वजह से हम परमार्थ का परिचय प्राप्त नहीं कर सकते, बुद्धिहीनता के कारण हम पाप एवं पुण्यादि के विषय में जान नहीं सकते तो हम क्या करें?" __ ऐसे लोगों के लिये ही दूसरी औषधि बताई है-सेवा-कार्य । कहा है-- "भाई ! अगर पुण्य की कमी के कारण तुम ज्ञान हासिल नहीं कर सकते हो तो ज्ञानी पुरुषों की सेवा करो ! सेवा से भी अनन्त पुण्यों का उपार्जन हो सकता है । नौ प्रकार के पुण्योपार्जन के साधनों में सेबा भी एक है। उसके लिये कुशाग्र बुद्धि या अगाध ज्ञान की आवश्यकता नहीं है । प्रत्येक व्यक्ति इस पवित्र कार्य को कर सकता है। सेवा हृदय और आत्मा को पवित्र बनाती है तथा ज्ञान की प्राप्ति में सहायक बनती है । सेवा का मार्ग भक्ति के मार्ग से भी मह न है। गौतम बुद्ध का कथन था--जिसे मेरी सेवा करनी है वह पीड़ितों की सेवा करे ।' सेवा कार्य सहज नहीं है । तुलसीदास जी ने कहा भी है_ 'सेवा धरम कठिन जग जाना।' - अर्थात्-सेवा करना बड़ा कठिन कार्य है । इसे करते हुये व्यक्ति को न जाने कितना अपमान, दुर्वचन, लांछन और तिरस्कार सहन करना पड़ता है। किन्तु अगर वह यह सब पूर्ण शांति और संतोषपूर्वक सहन करता है तो उसकी आत्मा निरन्तर विशुद्धता को प्राप्त होती जाती है। विपत्ति और पीड़ाग्रस्त प्राणियों की सेवा करना परम उत्कृष्ट धर्म है और इसे करने से अनन्त पुण्यों का संचय होता है। इस दुर्लभ मानव जीवन को पाकर जो प्राणी पर-सेवा को अपना मुख्य कर्तव्य नहीं मानता वह अपने जीवन का लाभ नहीं उठा सकता। इसलिये महापुरुष कहते हैं पास तेरे है कोई दुखिया तूने मौज उड़ाई क्या ? भूखा-प्यासा पड़ा पड़ौसी तूने रोटी खाई क्या ? आशय स्पष्ट है। इस पद्य में स्वार्थी और विलासी व्यक्ति की भर्त्सना करते हुये कहा है-"अरे प्राणी, अगर तेरे समीप कोई अभावग्रस्त या रोगपीड़ित दुःखी व्यक्ति घोर कष्टों में से गुजर रहा है और तूने उसकी ओर ध्यान न देकर केवल अपनी ही मौज-शौक का ध्यान रखा है, अपने भोग-विलास के साधनों को जुटाने और उन्हें भोगने में ही लगा रहा है तो तूने यह जीवन पाकर क्या किया ? कुछ भी नहीं।" तेरा पड़ोसी तन पर वस्त्र और पेट के लिये अन्न नहीं जुटा सका किन्तु तू प्रतिदिन नाना प्रकार के मधुर पकवान उदरस्थ करता रहा तो क्या हुआ ? क्या इससे तेरी कीर्ति बढ़ गई ? नहीं, अपना पेट तो पशु भी भर लेता है। तूने उससे अधिक क्या किया ? अगाध ज्ञान और बुद्धि का धनी होकर तथा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004006
Book TitleAnand Pravachan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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