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कल्याणकारिणी क्रिया
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जिस जहर को खाने से अल्प-काल में ही मनुष्य का प्राणांत हो जाता है वही विष अभ्यासपूर्वक प्रतिदिन लेने से अमृत का कार्य कता है । यह भी कोई नवीन बात नहीं है । प्रायः सुनने में आता है कि अफीम का आदी व्यक्ति प्रारम्भ में बाजरी के दाने जितनी अफीम लेता है, पर कुछ दिन बाद उसका अभ्यास हो जाने पर फिर ज्वार के दाने जितनी और उसके पश्चात् चने की दाल के बराबर और धीरे-धीरे दो आने चार आने से बढ़ते-बढ़ते वह तोलेभर अफीम भी प्रतिदिन उदरस्थ कर लेता है । आश्चर्य की बात है कि तोलाभर अफीम खाकर वह नहीं मरता पर अगर अफीम न मिले तो मर जाता है । तो प्रतिदिन सेवन करने से वह उसके लिये अमृत ही हुआ न ! ___ तो बंधुओ ! आप अभ्यास की महिमा को भली-भांति समझ गए होंगे कि इसके द्वारा किसी प्रकार असभव को भी सभव बनाया जा सकता है। प्रत्येक कार्य चाहे वह अच्छा हो या बुरा, सफल तभी होता है जब कि उसके लिये अभ्यास किया जाए । इसीलिए अगर हम अपनी आत्मा को कर्म-मुक्त करके अनन्त सुख की प्राप्ति करना चाहते हैं तो हमें तप, त्याग, संयम और मन पर विजय पाने का अभ्यास करना होगा । अपने ज्ञान को क्रियाओं में उतारकर आचरण को शुद्ध और दृढ़ बनाना पड़ेगा । साधना पथ पर चलने के लिए इन दोनों की समान और अनिवार्य आवश्यता है । पूज्यपाद श्री अमीऋषि जी महाराज ने भी कहा है :ज्ञान क्रिया बिन मोक्ष मिले नहीं,
श्री जिन आगम माहीं कही है। एक ही चक्र से नाहीं चले रथ,
दो बिन कारज होत नहीं है ॥ ज्ञान है पांगुलो अध क्रिया
मिल दोनु कला करि राज ग्रही है। किजे विचार भली विध अमृत,
श्री जिन धर्म को सार यही है ।। हमारे आगम स्पष्ट कहते हैं कि जिस प्रकार रथ एक पहिये से कभी नहीं चलता, उसमें दोनों चक्र समान रूप से आवश्यक हैं, उसी प्रकार मोक्ष मार्ग को साधना रूपी गाड़ी भी अपने ज्ञान और क्रिया रूपी दोनों पहियों के सहारे से ही आगे बढ़ सकती है। क्योंकि ज्ञान प्रकाश का पुज है किन्तु चलने में असमर्थ है और क्रिया चलने में समर्थ है पर मार्ग नहीं देख सकती। इसलिए मार्गद्रष्टा ज्ञान एवं गति करने में कुशल क्रिया, इन दोनों कलाओं के द्वारा मुमुक्षु को शिवपुर का साम्राज्य प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए । हमारा जैनधर्म यही कहता है।
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