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आनन्द प्रवचन : तृतीय भाग
जब पवित्रता रम रही है और समस्त अन्तःकरण निर्मल भावों से भरा हुआ है तो भली-भांति समझ ले कि अज्ञान, असंयम, मोह तथा वैर-विरोध संकुचित होकर भय के कारण दूर ही रहेंगे तथा तेरे अन्दर प्रवेश करने का साहस नहीं कर पायेंगे। __ कवि ने आगे के पद्य में सच्चे साधक अन्त करण को एक व्यवस्थित दरबार के रूप में चित्रित करते हुए कहा है- "तेरे मन के सुन्दर सिंहासन पर सत्य रूपी राजा एवं अहिंसा रूपी महारानी प्रतिष्ठित है तथा स्नेह, सद्भावना, विरक्ति, सेवा, करुणा, दया आदि अनेक सुन्दर सद्गुण दरबारियों के समान उनकी शोभा बढ़ा रहे हैं । तेरे इस हृदय-दरबार में अगणित सत्यधारो पैगम्बर एवं अवतारी भी विराजमान हैं । फिर बता कि तू बन-वन में किसलिए भटक रहा है ?'' अर्थात्
सत्य अहिंसा राजा रानी; सब सद्गुण दरबारी । अगणित सत्यभक्त बैठे हैं, पंगम्बर अवतारी ॥ तू क्यों भटक रहा वन-वन में बाबा ढूढ़े कहाँ गगन में ? वास्तव में ही कवि ने निष्पाप और निर्दोष हृदय का बड़ा सुन्दर चित्र खींचा है कि जीवन की सभी अच्छाइयां केवल मनुष्य को अपनी आत्मा में ही निहित हैं । उससे अलग रहकर पूजा-पाठ तथा माना प्रकार के अन्य क्रियाकांड व्यर्थ हैं और उनसे आत्म-कल्याण संभव नहीं है। आत्मा की असाधारण महिमा बताते हुए कवि ने आगे भी कहा है--
सिद्ध शिला है यहीं, यहीं बैकुण्ठ यहीं है जन्नत । मन की मुक्तिपुरी पर करदे न्योछावर सारे मत ॥
बन जा मुक्त इसी जीवन में, बाबा ढूढे कहाँ गगन में ? जब हम इतिहास उठाकर देखते हैं तो मालूम होता है कि धर्म के नाम पर लोगों ने कितना खून-खच्चर किया है तथा किस प्रकार रक्त की नदियाँ बहाई हैं ? और वह सब क्यों हुआ ? केवल इसीलिए कि व्यक्तियों ने धर्म को आत्मा के अन्दर नहीं माना तया उसे अपने-अपगे ढंग से किये जाने वाले ऊपी क्रिया-कांडों में ही समझ लिया । मन्दिर वालों ने प्रतिमा की पूजा करने में, स्थानकवासियों ने संत दर्शन तथा सामायिक, प्रतिक्रमण अथवा अन्य क्रियाओं में, सिक्खों ने गुरुग्रन्थ का पाठ करने में, मुसलमानों ने नमाज पढ़ने और कुरान की आयतें कण्ठस्थ करने में तथा ईसाइयों के गिरजाघर में जाकर बाइबिल का अध्ययन करने में धर्म मान लिया।
परिणाम यह हुआ कि भिन्न-भिन्न सम्प्रदाय खड़े हो गए, धर्म को विभिन्न नामों से पुकारा जाने लगा और उनमें मतों की मोटी-मोटी दीवारें खड़ी हो
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