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________________ रुको मत, किनारा समीप है २९७ कवि का कथन सत्य भी है क्योंकि जिस व्यक्ति को अग्ने दुर्गुणों का पता नहीं चलता वह उन्हें दूर कर भी कैसे सकता है ! अपने शरीर की और वस्त्रों की गन्दगी का जिन्हें पता नहीं चले, वह इन्हें साफ कैसे करेगा ? इसीलिए महापुरुष कहते हैं -निन्दा करनी है तो अपने अवगुणों की करो और प्रशंसा करनी है तो दूसरों के गुणों की करो। अर्थात् अपने अवगुणों को और दूसरों के गुणों को ही देखो। ऐसा करने पर ही जीवन उन्नत और पवित्र बन सकता है। अपनी कमियों का निरीक्षण और उनका संशोधन ही आत्म-शुद्धि के मूल मन्त्र हैं । जब व्यक्ति में ये दोनों प्रवृत्तियां पनप जाती हैं तभी वह आत्मोत्थान के मार्ग पर बढ़ सकता है तथा संसार-सागर के इस मनुष्य जन्म रूपी किनारे से तनिक सा आगे बढ़कर ही शिवपुर पहुंच सकता है । आज के मेरे कथन का सारांश यही है कि बन्धुओ, यह मानव जन्म अत्यन्त दुर्लभ है और अनन्त पुण्यों के उदय से प्राप्त हुआ है और सबसे बड़ी बात तो यह है कि यह जन्म ही ऐसा है जिसमें मनुष्य अपनी आत्मा के स्वरूप को समझकर उसे कर्म-मुक्त कर सकता है। तथा भली-भांति समझ सकता है कि सच्चा मोक्ष केवल आत्मा का निर्मल होना है। उसके लिए कहीं भी बाहर जाने की तथा बाह्य आडम्बर करने की आवश्यकता नहीं है । कहा भी है मुक्तिपुरी तेरे मन में बाबा, ढूढे कहाँ गगन में। स्वर्ग नरक के आँगन में बाबा, ढूढे कहां गगन में ? है बिवेक की पहरेदारी पाप नहीं आ पाते । द्रोह, मोह, अज्ञान, असंयम; दूर खड़े सकुचाते। शुचिता रमी यहां कन-कन में-बाबा ढूढ़े कहाँ गगन में ? कितनी सुन्दर और मार्मिक बात है। कवि का कथन है- अरे भोले प्राणी ! जिस मोक्ष की प्राप्ति के लिए तू जमीन आसमान एक कर रहा है तथा सोच रहा है कि वह बहुत ऊपर है, वह तो तेरी ही अपनी आत्मा में निहित है । आत्मा की पूर्णतया कर्म रहित अवस्था से अन्य भी कहीं मुक्तिपुरी है क्या ? तू क्यों भूल जाता है कि स्वयं स्वर्ग भी तो तेरे अन्तःकरण रूपी आँगन में नृत्य कर रहा है । फिर तू स्वर्ग और मोक्ष को कहाँ ढूढ़ता है ? अगर तेरा हृदय सरलता, शुद्धता और विषय विकारों से रहित है और उस पर भी सद्विवेक सजग और सतर्क रहकर उसकी पहरेदारी कर रहा है तो पापों का अन्तःकरण में प्रवेश होना संभव नही है । हृदय के कण-कण में Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004006
Book TitleAnand Pravachan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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