SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 313
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आनन्द प्रवचन : तृतीय भाग शिष्य ने प्रथम बार उस दर्पण में अपने मन का चित्र देखा । पर वह दंग रह गया यह देखकर कि स्वयं उसके मन का प्रत्येक कोना क्रोध, मान, माया, लोभ, अहंकार, राग, द्व ेष तथा ईर्ष्या आदि से भरा पड़ा है । वह बहुत ही हैरान होकर बोला - "महाराज ! यह क्या बात है ? मेरा हृदय तो सभी के हृदयों से ज्यादा बुरा दिखाई देता है ?" गुरु ने सस्नेह शिष्य की ओर देखते हुए कहा - "बेटा, यह दर्पण मैंने तुम्हें दूसरों के मन की बुराइयां देखने के लिए नहीं अपितु अपने मन की बुराइयों और दोषों को देखने के लिए दिया है । अतः इसमें तुम अपने मन को देखा करो और उसे देख-देखकर बुराइयों को दूर करने का प्रयत्न किया करो ।" २६६ तो बन्धुओ, यह उदाहरण हमें यही बताता है कि हमारी दृष्टि केवल अपनी आत्मा की ओर होनी चाहिए। हमें अपने मन के दोषों को देखकर उनका निवारण करना चाहिए तथा आत्मा को अधिक से अधिक निर्मल बनाने का प्रयत्न करना चाहिए । यही आत्मा की मुक्ति का सीधा और सच्चा मार्ग है । व्यक्ति अभी बताए गए उदाहरण के अनुसार उस शिष्य की तरह जो दर्पण में केवल दूसरों के मन की बुराइयों को देखा करता था कभी भी स्वयं अपनी आत्मा से बुराइयों को निकाल नहीं सकता। वह अपनी समस्त शक्ति ओरों की निन्दा, आलोचना करने में व्यर्थ खर्च कर देता है कि इस सबका त्याग करके अगर वह केवल अपनी ही कमी और बुराइयाँ देखता है तो क्रमशः अपनी आत्मा को निर्मल बनाता चला जाता है । वस्तुतः प्रत्येक व्यक्ति में कोई न कोई दोष होता है किन्तु जो व्यक्ति अपनी कमी को कमी नहीं मानता वह कभी अपनी आत्मा को निर्मल नहीं बना सकता पर इसके विपरीत जो अपनी प्रत्येक कमी को बड़ी मानकर उसे आत्मा से निकालने का प्रयत्न करता है वही आत्म-कल्याण के मार्ग पर चल सकता है । महात्मा कबीर ने तो कहा है: निन्दक नियरे राखिये, बिन पानी साबुन बिना, Jain Education International आँगन कुटी छवाय । निर्मल करें सुभाव ॥ क्या कहा है ? कहा है जिस प्राणी को अपनी आत्मा को शुद्ध करने की लगन हो उसे तो यह चाहिए कि वह अपनी निन्दा करने वाले अथवा अपनी गलतियाँ व दोषों का दिग्दर्शन कराने वाले व्यक्ति को सदा अपने समीप रखना चाहिये ताकि उसके बताते ही वह अपने दोष का परिमार्जन कर सके । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004006
Book TitleAnand Pravachan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy