SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 316
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गई हैं । वे नहीं समझ सके कि - - रुको मत, किनारा समीप हैं। "वत्थुसहाओ धम्मो ।” अर्थात् वस्तु का अपना स्वभाव ही धर्म है | जिस प्रकार जल का धर्म शीतलता, अग्नि का उष्णता, मिश्री का स्वभाव मीठापन है, इसी प्रकार आत्मा का स्वभाव या धर्म सत्-चित्-आनन्दमय है । ज्ञान, दर्शन तथा चारित्रमय है । प्रत्येक जीव की आत्मा अगर अपने सहज स्वभाव एवं विशुद्ध रूप में रह सके तो निश्चय ही वह आत्मा धर्ममय है । स्पष्ट है कि धर्म आत्मा से अलग कहीं नहीं है । उसके ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र ही उसे धर्ममय मानते हैं । इसीलिये कवि ने कहा है-- "तेरी आत्मा में ही सिद्धशिला, बैकुण्ठ या जन्नत जो कुछ भी कहा जाय सब है । इसलिए समस्त सम्प्रदायों और मतों को तू केवल अपने मन को मुक्तिपुरी पर ही न्योछावर क्यों नहीं कर देता ? जन्नत, बैकुण्ठ और सिद्धशिला पर एक ही स्थिति के नाम ही तो हैं । प्रत्येक व्यक्ति अपनी आत्मा को शुद्ध बनाकर ही तो मुक्ति का अनुभव कर सकता है । उसके लिए भिन्न-भिन्न मार्गों का नाम देना मूर्खता नहीं तो और क्या है ? भेद सब ऊपर से दिखाई देने वाला है अन्दर तो केवल एक ही तत्व निहित होता है । मन्दिर, मसजिद, गिरजाघर, गुरुद्वारा और शिवालय तो एक ही प्रकार के चूने, मिट्टी और पत्थर से बने हुए होते हैं । कहा भी है- २६६ बनवाओ शिवालय या मसजिद, है ईंट वही, चूना है वही । ये मार वही, मजदूर वही, मिटी है वही, गारा है वही ॥ Jain Education International आशा है आप पद्य का अर्थ समझ गये होंगे । आशय यही है कि ऊप वेश-भूषा या क्रिया- कांडों को लेकर लड़ना-झगड़ना भारी भूल है । परमात्मा का निवास केवल आत्मा में हो होता है । जिस समय आत्मा समस्त कर्मों से मुक्त हो जाती है, वह भी परमात्म-स्वरूप बन जाती है । इसीलिए कवि ने कहा है कि तू अपनी आत्मा को पूर्णतया विशुद्ध बनाकर इसी जीवन में मुक्त हो जा ! तो बन्धुओ ! हमें ऐसा महिमामय और दुर्लभ मानव-जीवन पाकर इसे व्यर्थ नहीं खोना है । अगर अनन्तकाल के पश्चात् भी इसे पाकर हमने खो दिया तो समझना चाहिए कि हमारी आत्मा भव-सागर के किनारे तक आकर भी पुन: मझधार की ओर मुड़ गई है तथा उस ओर अग्रसर हो रही है । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004006
Book TitleAnand Pravachan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy