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________________ श्री रामो मत, तिजारा समीर रुको मत, किनारा समीप है धर्मप्रेमी बन्धुओ, माताओ एव बहनो! आज का विषम मैं श्री उत्तराध्य यन सूत्र की एक गाथा से प्रारम्भ कर रहा हूँ। गाथा इस प्रकार है : तिण्णो हु सि अण्णवं महं, किं पुण चिट्ठसि तीरमागओ। अभितुर पारं गमित्तए, समयं गोयम ! मा पमायए॥ -उत्तराध्ययन सूत्र १०-३४ इस गाथा में भगवान महावीर स्वामी ने फरमाया है-हे गौतम ! तू अति विस्तृत संसार समुद्र को तैर गया है, फिर तीर को प्राप्त करके अब क्यों खड़ा है ? पार जाने के लिए शीघ्रता कर । इस विषय में समय मात्र भी प्रमाद मत कर। कहने का आशय यही है कि जीव चारों गतियों में जो चौरासी लाख योनियाँ हैं उनमें अनंत काल से जन्म-मरण करता चला आ रहा है और अब असंख्य पुण्यों के फलस्वरूप उसे मानव-पर्याय प्राप्त हुई है। दूसरे शब्दों में यह भी कहा जा सकता है चार गति और चौरसी लाख योनियों रूपी यह जो असीम संसार-सागर है इसमें अब मानव-जन्म रूपी किनारे पर आ गया है । यह मानव-जन्म ऐसा जन्म है कि अब यह चाहे तो शीघ्र ही इसके किनारे तक पहुंचकर शिवपुर को प्राप्त कर सकता है। क्योंकि मानव-जन्म के अलावा और कोई पर्याय ऐसी नहीं है, जिसमें रहकर जीव आत्मा के कल्याण के लिये प्रयत्न कर सके । स्वर्ग के देवता भी अपार सुखों का भोग करते हैं, शक्तिशाली और ज्ञानवान भी होते हैं किन्तु वे भी आत्म-मुक्ति के लिये साधना करने में समर्थ नहीं हो पाते । वे केवल पूर्वकृत पुण्यों का उपभोग ही करते हैं तथा मानव जन्म पाने के लिये तरसते हैं क्योंकि आध्यात्मिक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004006
Book TitleAnand Pravachan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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