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________________ २६२ आनन्द प्रवचन : तृतीय भाग दृष्टिकोण से अगर विचार किया जाय तो सर्वज्ञ प्रभु के कथनानुसार चरम सीमा का आध्यात्मिक विकास केवल मनुष्य ही कर सकता है। सांसारिक सुखों के लिहाज से यद्यपि देवताओं को मनुष्य की अपेक्षा अधिक सुख प्राप्त हैं किन्तु आत्म-साधना की दृष्टि से देवता नगण्य साबित होते हैं। वे अधिक से अधिक चार गुणस्थान प्राप्त कर सकते हैं किन्तु मानव चौदह गुण स्थानों को ही पार करके परमात्म पद को पा सकते हैं। इसीलिए मानव जन्म को अत्यन्त महिमामय तथा संसार-सागर का किनारा माना जाता है । यों तो संसार में अनन्त प्राणी हैं किन्तु मनुष्य के पास विवेक, बुद्धि और अन्त.करण है विचार करने की ओर वाणी के द्वारा व्यक्त करने की अनुपम शक्ति है । इसी के कारण वह जीव-जगत का शिरोमणि और संसार-सागर का किनारा कहलाता है। मानव अपने जीवन का उद्देश्य लोक-परलोक, पाप और पुण्य तथा नरक निगोदादि के दुःखों का ज्ञान करता हुआ अपने हृदय में शुभ भावनाएँ रखता हुआ आत्म-मुक्ति के लिये प्रयत्न कर सकता है । भव्य प्राणी सदा यह भावना रखता है : कब दुःखदाता यह आरत तजू गो दूर, ___ कब धन धामते ही ममत मिटाऊँगो। कब विष तुल्य जानी, त्यागूगो विषय राग, कब मैं विषय जीती ज्ञान उर लाऊँगो । कब हों प्रमाद मद छोरिके करूगो धर्म, स्थिर परिणाम करो, भावना सो भाऊँगो। कहे अमीरिख ममोरथ यों चितारे भवि, . धन्य वह दिन घड़ी, सफल कहाऊँगो । ... इस प्रकार जिसे मानव-जन्म रूपी सर्वोत्तम पर्याय और संसार रूपी सागर का किनारा मिल गया है उसे तनिक भी प्रमाद न करके सम्यक् ज्ञान, सम्यक् श्रद्धा और सम्यक् चारित्र की आराधना करते हुए प्रतिक्षण मन में यही भावना रखनी चाहिये- "मैं कब आर्त-ध्यान का त्याग करके धन, धान्य, मकान तथा समस्त वैभव से ममत्व हटाऊँगा ? मैं कब विषयों को विष के समान समझकर इनका त्याग करूँगा तथा हृदय में ज्ञान की ज्योति जगाऊँगा ? कब मैं प्रमाद एवं अहंकार का त्याग करके धर्म को हृदय में धारण करूंगा तथा अपने परिणामों को स्थिर रखता हुआ शुभ भावनाओं को चित्त में स्थान दूंगा। पूज्य-पाद श्री अमीऋषिजी कहते हैं-भव्य प्राणी यही सोचता है कि Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004006
Book TitleAnand Pravachan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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