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आनन्द प्रवचन : तृतीय भाम
अर्थात् मनुष्य नाटक के अभिनेता के समान है, जो क्षण भर में बालक, क्षणभर में युवा और कामी रसिया बन जाता है तथा क्षणभर में दरिद्र और क्षण में धन व ऐश्वर्य से पूर्ण हो जाता है । उसके पश्चात् अन्त में बुढ़ापे से जीर्ण और सिकुड़ी हुई खाल का रूप दिखाकर, यमराज के नगररूपी पर्दे की ओट में छिप जाता है।
इस प्रकार बंधुओ, यह संसार एक नाट्यशाला है और प्राणी इसमें अभिनय करने वाले अभिनेता । जो भव्य पुरुष इस सत्य को समझ लेते हैं वे इसे यथार्थ मानकर इसमें आसक्त नहीं होते तथा प्रतीक्षण अपने अभिनय को समाप्त करने के लिए तैयार रहते हैं ।
किन्तु ऐसी शक्ति मानव में कब आती है ? जब वह सच्चे कलाकार के समान धर्म को अपने जीवन में उतार लेता है, तथा अपने शरीर, दिमाग और अन्तःकरण से काम लेता है । जो त्याग और नियमों को अपनाता है तथा उन पर पूर्णतया दृढ़ रहता है। एक बार किसी भी वस्तु का तथा विषय-भोगों का त्याग करने के पश्चात् उनकी ओर फिरकर भी नहीं देखता। त्यागे हुए भोगों को वमन के समान समझता है और उनसे पूर्णतया नफरत रखता हुआ अपने आत्म-साधना के पथ पर अविचलित कदमों से बढ़ता जाता है। ऐसा व्यक्ति ही अपने सम्पूर्ण कर्मों की निर्जरा करके अनन्त एवं अक्षय सुखों की प्राप्ति करके संसार-भ्रमण से मुक्त हो जाता है।
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