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________________ समय से पहले चेतो २७५ - अतएव हमें शरीर के वृद्ध होने न होने की परवाह नहीं करनी है तथा 'जब जागे तभी सवेरा' वाली कहावत को चरितार्थ करते हुए संसार से विरक्त रहकर आत्म-कल्याण में जुट जाना है। शरीर के वृद्ध हो जाने पर भी आत्मा की अनन्तशक्ति में कभी कमी नहीं आती यह विचार करके अपने विचारों को उच्चतम बनाते हुए कर्मों की निर्जरा करनी है। मृत्यु से डरो मत! जो अज्ञानी व्यक्ति यह विचार कर घबराने लगते हैं कि अब हमारी वृद्धावस्था आ गई.और हमें काल का ग्रास बनना पड़ेगा, वे शोक और चिन्ता के कारण हाय-हाय करके अपने कर्मों का बन्धन करते हैं तथा अगले जन्म को भी बिगाड़ लेते हैं। किन्तु ज्ञानी पुरुष मृत्यु को एक वस्त्र बदलकर दूसरा पहन लेने के समान ही साधारण मानते हैं । उन्हें इस शरीर के नष्ट हो जाने का तनिक भी भय नहीं होता । क्योंकि वे आत्मा को अमर और अविनाशी मानते हैं । वे विचार करते हैं - 'इस देह का नाश होने से मेरी क्या हानि है ? यह नष्ट हो जायेगी तो दूसरी नबीन देह मिलेगी। मेरी आत्मा तो शाश्वत है जिसे कोई नष्ट नहीं कर सकता। भगवद्गीता में कहा भी है नैन छिन्दन्ति शास्त्राणि, नैनं दहति पावकः । न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ।। अविनाशी तु तद्विद्धि येन सर्न मिदं ततम् । विनाशमव्ययस्यास्य, न कश्विरकतुं महति ॥ अर्थात् इस आत्मा को शास्त्र काट नहीं सकते, अग्नि जला नहीं सकती, जल इसे भिगो नहीं सकता और पवन इसे सुखा नहीं सकता। कोई भी शक्ति इस अजर-अमर और निवासी आत्मा को नष्ट करने में समर्थ नहीं है । भीष्म पितामह कई दिन तक शरशय्या पर लेटे रहे और उसमें उन्होंने रंचमात्र भी दुःख या कष्ट का अनुभव नहीं किया। क्योंकि वे भली-भाँति विश्वास करते थे कि मेरी आत्मा पहले भी थी, अब भी है और भविष्य में भी रहेगी। यही कारण था कि अन्तिम क्षण तक उन्होंने परम पिता परमात्मा का स्मरण किया और स्मरण करते-करते ही प्रसन्नतापूर्वक अपना चोला बदल लिया । ___महापुरुष इसी प्रकार स्वयं प्रबुद्ध रहते हैं तथा औरों को भी बोध देते हैं महात्मा बुद्ध के समय में एक स्त्री का इकलौता पुत्र काल कवलित हो गया। स्त्री अपने पुत्र की मृत्यु से अत्यन्त शोकाकुल हुई और उसे लेकर रोती-पीटती हुई बुद्ध के पास आ कर बोली Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004006
Book TitleAnand Pravachan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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