SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 293
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २७६ आनन्द प्रवचन : तृतीय भाग "भगवन् ! मेरा यही एक बेटा था और यह भी मर गया कृपा करके इसे किसी भी प्रकार जीवित कर दीजिये । भगवान् बुद्ध स्त्री का दुख देखकर व्यथित हुये किन्तु उसकी आत्मा को जगाने के लिये बोले-'बहन ! मैं तुम्हारे पुत्र को जीवित कर दूंगा पर एक शर्त है कि तुम किसी ऐसे घर से राई के थोड़े से दाने ले आओ जिस घर में किसी की भी कभी मृत्यु न हुई हो। पुत्र-शोक से विह्वल स्त्री बुद्ध की बात सुनकर आश्वस्त हुई और नगर की ओर दौड़ी। किन्तु प्रत्येक घर में घूमने पर भी उसे कोई ऐसा कहने वाला न मिला जहाँ पर किसी की मृत्यू न हई हो। कोई पिता की, कोई दादा की, कोई पुत्र की और कोई पत्नी की मृत्यु हुई है, यही कहता था। अन्त में निराश होकर वह पुनः बुद्ध के पास आई और बोली - भगवन् ! ऐसा तो कोई भी घर मुझे नहीं मिला जहां किसी की मृत्यु न हुई हो। सभी के घर में कोई न कोई मरा है।" बुद्ध ने यह सुनकर कहा- "बहिन ! तुम अब तो समझ ही गई होगी कि मृत्यु का अ ना अनिवार्य है। जो जन्मा है वह मरेगा ही। आगे पीछे हमें भी यह देह छोड़नी है, अतः धैर्य धारण करो तथा अपने आत्म-कल्याण की ओर ध्यान दो।" महात्मा बुद्ध की बात सुनकर स्त्री को बोध हुआ और उसने मृत्यु को अवश्यम्भावी मानकर अपने चित्त को शान्त किया तथा मृतक पुत्र के शव को लेकर उसका क्रिया-कर्म करने चल दी। इसलिये बन्धुओ, हमें भी न वृद्धावस्था के लिये शोक करना है और न मृत्यु से भयभीत होना है । अपितु यह प्रयत्न करना है कि हम त्याग, तपस्या, व्रत तथा नियमादि के द्वारा कर्मों की निर्जरा करके ऐसा प्रयत्न करें जिससे पुनः जन्म न लेना पड़े और मृत्यु का कष्ट भी न भोगना पड़े। ___हमें अपने जीवन के बचे हुये समय का ही बड़ी सतर्कता पूर्वक सदुपयोग करना है । बीता हुआ समय कभी लौटकर नहीं आता। अगर हम यह बात . भली-भांति समझ लेते हैं तो निश्चय ही अपना परलोक सुधार कर मुक्ति के पथ पर अग्रसर हो सकते हैं ! पं० शोभाचन्द्रजी भारिल्ल ने भी कहा है तजो मोह-ममता भज समता, आत्म-स्वरूप निहारो। हृदय पटल का राग-रंग धो धर्म भाव उर धारो। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004006
Book TitleAnand Pravachan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy