SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 291
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २७४ आनन्द प्रवचन : तृतीय भाग बकरियों के समान पालते थे तथा विषधर भुजंगों को भी अपने गले में डाला करते थे । इसका कारण केवल यही था कि उनकी आत्मा पूर्ण सच्चाई से उन भयंकर प्राणियों को भी अपने समान ही मानती थी। उनकी आत्मा यही पार्थना करती थी समष्टि सतगुरु करो, मेरो भरम निवार । न्हें देखू तह एक ही, साहब का दीदार ॥ समष्टि तब जानिये शीतल समता होय । सब जीवन की आतमा, लखें एक सी सोय ।। और जब उनकी यह कामना फलीभूत हो जाती थी तो वे गद्गद् होकर कहते थे समदृष्टि सतगुरु किया. भरम किया सब दूर । दूजा कोई रिख नहीं, राम रहा भरपूर । जीवन की ऐमी अवस्था ही सर्वोत्तम मानी जा सकती है और यह उन्हीं को प्राप्त होती है जिनके पूर्व जन्मों के असंख्य पुण्य संचित होते हैं। तो बन्धु पो हमने आज की बात का प्रारम्भ तो भगवान महावीर के गौतम को दिए हुए उस उपदेश से किया था- "हे गौतम ! तेरा शरीर सब तरह से जीर्ण हो रहा है, बाल श्वेत हो गए हैं, शक्ति बल क्षीण हुआ जा रहा है अतः समय मात्र का भी प्रमाद अब मत कर ।" ___इसलिए हमें चाहिये कि इसी क्षण से हम सजग और सतर्क हो जायँ । उम्र भले ही हमारी कुछ भी हो केवल अपनी आत्मा और उसको शक्ति पर विश्वास होना चाहिये। पंचतन्त्र में कहा है मादौ चित्ते पुनः काये, सतां सम्पद्यते जरा। असतां तु पुन काये, नैव चित्ते कदाचन ॥ अर्थात् सत्पुरुषों को पहले वित्त में और बाद में शरीर में बुढ़ापा आता है तथा अस.पुरुषों को शरीर में ही बुढ़ापा आ जाता है चित्त में कभी नहीं। इस बात को हमें गम्भीरता पूर्वक समझना चाहिए । पद्य के अनुसार सज्जन पुरुषों के चित्त में पहले बुढ़ापा आ जाता है अर्थात् उनके हृदय में संसार के प्रति उदासीनता आ जाती है। परिणामस्वरूप वे पहले से ही जगत से विरक्त होकर आत्म-साधना में लग जाते हैं । __किन्तु जो असत्पुरुष अर्थात् दुर्जन होते हैं वे शरीर के वृद्ध हो जाने पर भी विषय-भोगों में रुचि रखते हैं तथा तृष्णा और ममता का त्याग नहीं करते । ऐसे व्यक्ति जीवन के अन्त तक भी सतर्क नहीं हो पाते तथा अगले जन्म में साथ ले जाने के लिये पुण्य का तनिक भी संचय नहीं कर सकते। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004006
Book TitleAnand Pravachan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy