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________________ समय से पहले चेतो २७३ कवि के कथन का आशय है-इश्वर एक है और एक रंग है । वह निर्विकार और अक्षय है। उसमें न कोई परिवर्तन आना है और न ही वह कम होता है या बढ़ता है। फिर भी महान् आश्चर्य की बात है कि वह घटघट में इस प्रकार प्रकट होता है जैसे एक सूर्य का प्रतिबिम्ब असंख्य जलाशयों में एक ही जैसा दिखाई देता है। निस्सन्देह जीवात्मा और परमात्मा में कोई अन्तर नहीं है। सागर में सैकड़ों नावें और जहाज चलते हैं । असंख्यों मगर, मछलियां और जल-जन्तु उसमें रहते हैं। सैकड़ों व्यक्ति उसमें स्नान करते हैं किन्तु उसी सागर के जल को एक लोटे में भर लिया जाय तो उसमें न नावें चल सकेंगी और न ही कोई उसमें स्नान कर सकेगा । सागर में अथाह जल राशि है और लोटे में थोड़ा सा जल है। दोनों एक हैं और उनके एक होने में कोई सन्देह नहीं किया जा सकता । उसी प्रकार जीवात्मा और परमात्मा के एक होने में भी सन्देह नहीं किया जा सकता। एक चींटी के शरीर में भी वही शक्तिशाली आत्मा है और हाथी के शरीर में भी। संसार के समस्त धर्मशास्त्र इस विषय में यही कहते हैं । कुरान में कहा है। "ला इलाही इल्ला अन्ना।" यानी आत्मा के सिवा दूसरा ईश्वर नहीं है । बाइबिल में भी ईसामसीह द्वारा कहा गया है । "You are the living temples of God." - तुम ईश्वर के जीवित मन्दिर हो । कहने का अभिप्राय यही है कि जो प्राणी अपनी आत्मा को परमात्मा के रूप में लाना चाहता है उसे संसार के समस्त प्राणियों को अपनी आत्मा के समान ही मानना चाहिये तभी वह अपने लक्ष्य की प्राप्ति कर सकता है। श्री शंकराचार्य ने भी कहा है शत्रौ मित्रे पुत्रे बन्धौ, मा कुरु यत्नं विग्रह सन्धौ । भव सम चित्तः सर्वत्र त्वं वाञ्छस्यचिराद् यदि विष्णुत्वम् । अर्थात् -हे प्राणी ! अगर तू शीघ्र ही मोक्ष या विष्णुत्व चाहता है तो शत्रु और मित्र, पुत्र और बन्धुओं से विरोध और प्रणय मत कर, यानी सब को एक नजर से देख ; किसी में भी भेद मत मान । __ ऐसी समदृष्टि ही आत्मा को उन्नत बनाती है तथा कर्मों को नष्ट करते हुए उसे परमात्मपद की प्राप्ति कराती है । इसी दृष्टि का प्रभाव हम प्राचीन इतिहासों में देखते हैं कि महर्षिगण अपने आश्रमों में सिंहों को गाय व Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004006
Book TitleAnand Pravachan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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