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२७२ आनन्द प्रवचन : तृतीय भाग मोह-ममता और भी बढ़ जाती है। वह रात-दिन अपने बेटों, पोतों तथा प्रपौत्रों की चिन्ता में घुलता रहता है। परिणाम यही होता है कि वह जीवनपर्यन्त परमात्मा को स्मरण करने का वक्त नहीं निकाल पाता। श्री शंकराचार्य ने कहा भी है -
बालस्तावत् क्रीड़ासक्तः, तरुणस्तावत् तरुणी रक्तः ।
वृद्धस्तावत् चिन्तामग्न: परे ब्रह्मणि कोऽपि न लग्न ।। मनुष्य बचपन में तो खेल-कूद में लगा रहता है, जवानी में स्त्री में आसक्त रहता है और बुढ़ापे में चिन्ता (फिकरों) में डूबा रहता है लेकिन परब्रह्म के चिन्तन में कोई भी नहीं लग पाता। ___ वस्तुतः इस मिथ्या और नाशवान संसार की वस्तुओं में आसक्ति रखना वृथा है । यहां कोई किसी का नहीं है। फिर उनकी चिन्ता और फिक्र में इस दुर्लभ देह को व्यर्थ नष्ट कर देना कहाँ की बुद्धिमानी है ? पुत्र, स्त्री, पति या अन्य कोई भी स्वजन सम्बन्धी मर गया तो क्या हुआ ? प्रत्येक मनुष्य को ही तो एक दिन अपनी राह पर जाना है। हां, अगर वे चले जायें और हम सदा यहां बने रहें, तब तो कोई बात भी है पर जब सभी को जाना है तो फिर मोह और ममता किसलिए? ___ इसीलिए मुमुक्षु को चाहिए कि वह समस्त सांसारिक प्रलोभनों को जीते तथा सांसारिक बन्धनों में अपनी आत्मा को बँधा न रखे । इसके साथ ही वह समभाव में रहे।
___ समदर्शी कैसे बना जाय ? समदर्शी बनना मुक्ति प्राप्ति का दूसरा साधन है। अगर मनुष्य के हुदय में सम-भाव आ गया तो समझना चाहिए कि उसके लिए सिद्धि प्राप्त में कुछ भी बाकी नहीं रहा । ज्ञानी पुरुष सम्पूर्ण विश्व के प्राणियों में एक ही चेतन आत्मा मानता है । अमीर-गरीब, छोटा-बड़ा, पशु-पक्षी तथा जगत का प्रत्येक अन्य प्राणी उसकी दृष्टि में समान मालूम देता है । सभी को आत्मवत् मानना ही समदर्शी कहलाता है । जब प्राणी की ऐसी दृष्टि हो जाती है तो उसके हृदय में किसी के भी प्रति राग और किसी के भी प्रति विराग की भावना नहीं रहती। किसी से उसका विरोध नहीं होगा और किसी के भी प्रति प्रणय भाव नहीं रहता । न उसे कोई अपना शत्रु दिखाई देता है और न कोई मित्र । चित्त की ऐसी अवस्था में भव्य प्राणी का हृदय परम सन्तोष एवं आनन्द का अनुभव करता है। कवि नजीर का कथत है
ये एकताई ये एकरंगी, तिस ऊपर कयामत है। न कम होना न बढ़ना और हजारों घट में बँट जाना ।
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