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________________ समय से पहले चेतो २७१ राजा मुख ते राम कह, पल-पल जात घड़ी। सुत खायो मृगराज ने, मेरे पास खड़ी ॥ अर्थात्--''राजन् ! राम का नाम लो, जीवन की ये अमूल्य घड़ियाँ क्षणक्षण में समाप्त होती जा रही हैं । आज ही मेरे नेत्रों के समक्ष तुम्हारे पुत्र को सिंह ने खा डाला है।" पर धन्य है वह पिता, जिसने वृद्धावस्था की लाठी के समान और राजकुमार जैसे होनहार तथा अद्वितीय सौन्दर्य के धनी पुत्र को मृत्यु की बात सुनकर भी उफ तक नहीं किया। उलटे ऋषि को मीठी ताड़ना दी-- तपिया तप क्यों छोडियो, इहाँ पलक नहिं सोग । बासा जगत सराय का, सभी मुसाफिर लोग ।। राजा ने कहा--"तपस्वीराज ! इस जरासी बात के कारण आपने अपनी तपस्या को छोड़कर क्यों कष्ट किया ? मुझे तो पुत्र की मृत्यु का तनिक भी शोक नहीं है। शोक करना भी किसलिए ? यह जगत तो एक सराय के समान हैं जिसमें प्राणी आते हैं। कुछ घड़ी, दिन या महीने निवास करते हैं और अपनेअपने गन्तव्य की ओर चल देते हैं। मेग पुत्र भी इसो संसाररूपी सराय का मुसाफिर था अतः चल दिया और सब मेरा वक्त आएगा तो मैं भी चल दूंगा। आत्मा का भी क्या कोई पुत्र या पिता होता है ? यह अकेली है और अकेली ही जाएगी। बाकी शरीर के रिश्ते तो उसके संसार के समस्त प्राणियों के साथ अनन्त बार हो चुके हैं । इस जन्म में वह देह से मेरा पुत्र था पर पिछले जन्मों में वह असख्य पिताओं का पुत्र बना होगा। फिर मुझे चिन्ता या दुःख किस बात का ?" आप तो निश्चित होकर पुनः अपनी साधना में अनुमान लगाइये ! मेरी तनिक भी चिंता मत कीजिये । संसार मे जन्म और मरण का चक्र तो चलता ही रहता है । उसमें आश्चर्य की क्या बात है ? ' राजा की बात सुनकर ऋषि को विश्वास हो गया कि वास्तव में राजा निर्मोही है । लोग झूठ नहीं कहते । इसने और इसके परिवार ने सचमुच ही मोह को जीत लिया है। __वस्तुतः मनुष्य चाहे साधु बनकर जंगल में रहे या गृहस्थावस्था में घर पर रहे, उसे निर्मोही राजा के समान मोह से रहित होकर रहना चाहिये। मोह तथा आसक्ति का त्याग कर देने वाला प्राणी भव-बन्धन में नहीं बँधता और वही सदा के लिए कर्मों से मुक्त हो सकता है। आज तो हम देखते हैं कि मनुष्य युवावस्था में विषय-भोगों में फंसा हो रहता है, वृद्धावस्था में भी आशा-तृष्णा का त्याग नहीं कर पाता तथा उसकी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004006
Book TitleAnand Pravachan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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