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________________ २६८ आनन्द प्रवचन : तृतीय भाग मोह पर विजय जिन महामानवों को सच्चा ज्ञान प्राप्त हो जाता है वे सर्वप्रथम मोह को जीतने का प्रयत्न करते हैं। वे भली-भांति समझ लेते हैं कि मोह-ममता ही संसार में आत्मा के परिभ्रमण करने का कारण है। यहां न कोई किसी का पति है, न कोई किसी की स्त्री, न कोई किसी का पिता है और न कोई किसी का पुत्र । सब नाते स्वार्थ के कारण हैं, जिस दिन उसका स्वार्थ सधना समाप्त हो जाएगा, वे सब भी अलग-अलग हो जायेंगे । संयोग के साथ वियोग और जन्म के साथ मृत्यु आनी निश्चित है । अज्ञानी व्यक्ति अपने किसी भी सम्बन्धी की मृत्यु पर शोक करता है तथा आकुल-व्याकुल होता है। किन्तु शनी और निर्मोही व्यक्ति किसी के जन्म या मृत्यु पर दुख और शोक नहीं करता । एक सुन्दर उदाहरण से यह स्पष्ट हो जाता है । निर्मोहि परिवार किसी नगर में एक राजा था, वह बड़ा ज्ञानी और तत्त्ववेत्ता था। समस्त नगर निवासी तथा आस-पास या दूर के व्यक्ति भी जो उसे जानते थे, निर्मोही राजा कहते थे। एक दिन उस राजा का राजकुमार शिकार खेलता हुआ वन में रास्ता भूल गया। घूमते-घूमते उसे बड़े जोर की प्यास लगी और वह पानी की तलाश में भटकता हुआ एक संत के आश्रम में पहुंच गया। संत ने उसे पानी पिलाया और उसका परिचय पूछा । जब संत को राजकुमार का परिचय मालूम हुआ तो उन्होंने कहा-"राजकुमार ! एक ही व्यक्ति निर्मोही भी हो और राजा भी हो यह कैसे सम्भव है ? जो राजा होगा वह निर्मोही नहीं हो सकता और जो निर्मोही होगा वह राजा कैसे बनेगा ? ___ गजकुमार बोला-"भगवन् ! अगर आपको विश्वास न होता हो तो आप परीक्षा करके देख लीजिए, मेरे पिताजी तो क्या, मेरा सारा परिवार और नौकर-चाकर तक भी निर्मोही हैं।" संत सुनकर चकित हुए और बोले-ऐसी बात है ? तुम यहीं ठहरो और कुछ म्मय तक आनन्द से आश्रम में रहो । मैं नगर में जाकर मालूम करता है कि वास्तव में ही तुम्ह रा परिवार ऐसा ही निर्मोही है क्या ?" राजकुमार ने तुरन्त यह स्वीकार कर लिया और आश्रम में ठहर गया। इधर संत नरक की ओर चल दिए। जब संत राजमहल के मुख्यद्वार पर पहंचे तो सर्वप्रथम उन्हें एक दासी दिखाई दी। संत ने अपनी परीक्षा का प्रारम्भ दामी से ही प्रारम्भ किया। उससे कहा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004006
Book TitleAnand Pravachan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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