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________________ समय से पहले चेतो २६७ ज्ञान की कैसी अद्भुत महिमा बताई गई है। कहा है—अज्ञानी पुरुष जिन कर्मों को सैकड़ों और करोड़ों वर्षों में भी नष्ट नहीं कर सकता उन्हें ज्ञानी अपने मन, वचन और शरीर पर संयम रखकर केवल अन्तमुहूर्त में ही खपा डालता है अर्थात् उनका पूर्णतया क्षय कर देता है। तो मुक्ति प्राप्ति का सर्वप्रथम साधन है । सम्य ज्ञान की प्राप्ति करना । अज्ञानी एवं मिथ्याचारी जहाँ अपनी विवेकहीनता के कारण निरन्तर पतन की ओर अग्रसर होता हुआ नरक की दुःपह यत्रणाओं को भोगता है, वहाँ ज्ञानी निरन्तर अपनी आत्मा को उन्नत बनाता हुआ मुक्ति की ओर बढ़ता है । . प्रश्न उठता है कि ऐसा क्यों ? इसका कारण यही है कि ज्ञानी पुरुष सदा गुण ग्रहण करने के प्रयत्न में रहता है। संसार की हीन से हीन वस्तु या निम्नकोटि के व्यक्ति में भी वह जो गुण देखता है, उसे प्राप्त करना चाहता है । वह पाप से घृणा करता है, पापी से नहीं । किन्तु इसके विपरीत अज्ञानी उत्तम से उत्तम वस्तु और विद्वान् से विद्वान् व्यक्ति में भी दोष देखता हुआ उसकी निन्दा व आलोचना करके अपने हृदय में अहंकार एवं द्वषरूपी दुर्गुणों का पोषण करता है। इसलिए अज्ञान से पतन और ज्ञान से अभ्युदय होता है। संसार के सभी महापुरुष आत्मा को कर्म मुक्त करने के लिए सर्वप्रथम ज्ञान-प्राप्ति की ओर बढ़ते हैं । ज्ञान को ही संसार-सागर से पार करने वाली नौका मानकर उसका सहारा लेते हैं । ज्ञान के विषय में कहाँ तक कहा जाय, एक श्लोक से आप समझ सकते हैं - - ज्ञानाद्विदन्ति खलु कृत्यमकृत्य जातम् । ज्ञानाच्चरित्रममलं च समाचरन्ति । ज्ञानच्च भव्यभविनः शिवमाप्नुवन्ति । ज्ञानं हि मूलमतुल सकलश्रियां तत् ॥ अर्थात ज्ञान के द्वारा ही व्यक्ति को कर्तव्य और अकर्तव्य का ज्ञान होता है. ज्ञ न से ही निर्मल चारित्र का पालन किया जा सकता है। ज्ञ न के द्वारा ही भव्यप्राणी मोक्ष की प्राप्ति कर सकते हैं, क्योकि उसके अभाव में घोर तपस्या एवं घोरतर कायक्नेश भी सम्यक् चारित्र में नहीं आता और वह सब मुक्ति का प्रदाता न होकर संसार को बढ़ाने का ही कारण बनता है। संक्षेप में लोकिक एवं लोकोत्तर सही प्रकार की सिद्धियां प्राप्त करने का एकमात्र साधन ज्ञान ही है। ___ सम्यक्ज्ञान की प्राप्ति से क्या-क्या लाभ होता है, यह बताना यद्यपि पूर्णतया संभव नहीं है। किन्तु मैं संक्षिप्त में कुछ बातें आपको बताने का प्रयत्न करता हूँ। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004006
Book TitleAnand Pravachan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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