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________________ समय से पहले चेतो २६३ भगवतकथा के प्रति श्रद्धा और रुचि बनी रहती है तथा कुछ न कुछ शिक्षा लेकर ही वे लौटते हैं और उससे परिवार का वातावरण शांतिमय बना रहता है।" __ मेरे यहाँ आने का तीसरा कारण और भी है। वह यह कि-भगवान के वचन मैं सुन नहीं पाता फिर भी उनके स्पर्श से मेरे अंग तो पवित्र होते ही हैं। ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार सर्प का विष मंत्रों से उतारा जाता है । उन मंत्रों को सर्प के द्वारा काटा हुआ व्यक्ति समझता नहीं फिर भी उनसे शरीर में व्याप्त हुआ विष उतर आता है । फिर आप ही बताइये क्या मेरा यहाँ प्रतिदिन आना कम लाभदायक है ? महात्मा जी बहरे किन्तु उस ज्ञानवान एवं बुद्धिमान व्यक्ति की बात सुनकर अत्यन्त प्रभावित हुए और मन ही मन उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे। ___ आशय कहने का यही है कि वृद्धावस्था में इन्द्रियाँ इसी प्रकार क्षीण हो जाती हैं, किन्तु जो व्यक्ति ज्ञानी और समझदार होते हैं वे अपनी क्षीण-इन्द्रियों का भी उचित उपयोग करते हैं, जिस प्रकार अभी-अभी बताए हुए उस बहरे श्रोता क उदाहरण मैंने आपके सम्मुख रखा है। ___वृद्धावस्था में न घ्राणेन्द्रिय बराबर काम कर पाती है और न चक्षइन्द्रिय हो । आज के समय में तो हम छोटे-छोटे बालकों की आँखों पर भी चश्मा चढ़ा हुआ देखते हैं फिर बुढ़ पे में तो पूछना ही क्या है । न उत्तम ग्रन्थों का पठनपाठन हो कर सकते हैं और न शास्त्रों का स्वाध्याय ही हो सकता है। जवानी में तो जिह्वा इन्द्रिय चटखारे ले लेकर प्रत्येक वस्तु का स्व द लेती है, वही वृद्धावस्था में परेशानी हो जाती है क्योंकि मुह में दाँत नहीं रहते और इसलिये वस्तु बिना ठीक से चबाये ही निगलनी पड़ती है। अधकचरी निगलने से किसी वस्तु का बराबर स्वाद नहीं आता। बुढ़ापे में शरीर की समस्त इन्द्रियों के क्षीण होने पर भी वे कुछ न कुछ कार्य तो करती ही हैं. किन्तु दाँत तो बिलकुल झड़ जाते हैं। इनके झड़ने की बात को लेकर दार्शनिक कन्फ्यूशियस ने अपने शिष्यों को बड़ी सुन्दर शिक्षा दी है। उनके कई शिष्य थे। जब कन्फ्यूशियस वृद्ध हुये तो उनके मुंह में एक भी दाँत नहीं रहा एक दिन शिक्षण देते समय उन्होंने अपने शिष्यों के सामने अपना मुंह बाया और पूछा "मेरे मुह में क्या है ?" 'आपके मुह में तो गुरुदेव कुछ भी नहीं है।" शिष्यों ने उत्तर दिया। "मेरे मुह में दाँत हैं ?" पुनः प्रश्न हुआ। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004006
Book TitleAnand Pravachan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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