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________________ आनन्द प्रवचन : तृतीय भाग भाग्य से आगन्तुक भी बहरा था । उसने समझा मेरी बात का सही जवाब दिया ही होगा अतः उसने दूसरा प्रश्न पूछा - " बाल बच्चे सब ठीक हैं ?" २६२ बहरे ने आराम से उत्तर दिया- "घर जाकर भुरता बनाऊँगा कई दिन से इच्छा हो रही है ।" इसके पश्चात् दोनों वृद्ध अपने-अपने रास्ते पर चल दिये । अभिप्राय कहने का यह है कि वृद्धावस्था ऐसी ही दुःखदायी होती है । किन्तु जो समझदार व्यक्ति होते हैं वे अपनी वृद्धावस्था और बहरेपन का भी सदुपयोग कर लेते हैं । पर ऐसा वे ही कर सकते हैं जो हर्म के प्रति तथा जिनवाणी के प्रति प्रगाढ़ विश्वास रखते हैं । एक उदाहरण से यह बात भी आपकी समझ में आ जाएगी । बहरेपन का भी सदुपयोग एक वृद्ध जो कि बहरा था प्रतिदिन एक महात्मा का प्रवचन सुनने जाया करता था । उसके कान में बड़ी कठिनाई से कोई शब्द ही प्रवेश कर पाता था जो कि जोर से बोला जाता था । महात्मा जी प्रतिदिन उस वृद्ध को बड़े उत्साहपूर्वक सभा में बैठा हुआ देखते थे । वे जानते थे कि वृद्ध को सुनाई नहीं पड़ता । अतः एक दिन उन्होंने इशारे से वृद्ध को अपने पास बुलाया और खूब जोर से पूछा - " आपको प्रवचन के शब्द सुनाई पड़ते हैं क्या ?" वृद्ध ने सहज भाव से उत्तर दिया- "नहीं ।" महात्मा ने दुसरा प्रश्न उसी प्रकार से पूछा - "फिर आप प्रतिदिन प्रवचन सुनने के लिए यहाँ आकर क्यों बैठते हैं ?" महत्मा जी के प्रश्न के जवाब में उस धर्म - प्रिय व्यक्ति ने कितना सुन्दर उत्तर दिया ? कहा - " महात्मन् ! इस स्थान पर शास्त्र का वाचन होता है तथा जिनवाणी की ध्वनि गूँजती रहती है । इसीलिए किसी अन्य स्थान पर बैठने की अपेक्षा मुझे यहाँ बैटने से अधिक शांति मिलती है ।" " दूसरा कारण यहाँ बैठने का यह है कि शास्त्रों में कहा जाता है"महाजनों येन गतः सः पन्थाः ।" अर्थात् — घर के बड़े व्यक्ति जैसा करते हैं, उनकी देखा-देखी परिवार के अन्य व्यक्ति भी वैसा ही करने लगते हैं । यही कारण है कि मेरे यहाँ आने से मेरी पत्नी पुत्र-पुत्रियाँ आदि सभी प्रतिदिन यहाँ आकर भगवान की वाणी श्रवण कहते हैं । अगर मैं यहाँ आना छोड़ दूँ तो वे भी नहीं आएँगे । मेरे प्रतिदिन आने के कारण उनके हृदय में भी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004006
Book TitleAnand Pravachan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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